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________________ जैनधर्मसिंधु. तमें लेजामा ते सहो ॥ मा० ॥ मुझ मन पूरे डे सांख ॥ ज० ॥ ॥ लोका लोक सरूपना ॥ मात्र ॥ जगमां तुमें बो जाण ॥ ज० ॥ जाण आगे झुं जणावीयें ॥ मा० ॥ श्राखर अमें अजाण ॥ ज०॥ ॥ ॥ वाचक उदयनी विनति ॥ माण ॥ ससिहर कह्या संदेश ॥ ज० ॥ मानी लेजो महारीमा॥ वस्ति दूर विदेश ॥ ज० ॥ इति ॥ ॥अथ श्री युगमंधर जिन स्तवन ॥ श्हा आव एक क्षमा, आशफलं पातक मामार ।। श्रीयु ॥२॥ मुखम समयमा एणे जरतें, श्रतिशय नाणी नवि वरते ॥ कहीयें कहो कोण सांजल तेरे ॥ श्रीयुग ॥३॥ श्रवणें सुखीया तुम नामें, नयणां दरिसणन वि पामे, एतो जगमानो गमेंरे ॥ श्रीयुग ॥४॥ चार आंगल अंतर रहेg, शोकम लीनी परें व सडेवं. प्रन विना कोण आगल शय नाणी नवि वरते ॥ कहीयें कहो कोण सांजल तेरे ॥ श्रीयुग ॥ ३ ॥ श्रवणें सुखीया तुम नामें, नयणां दरिसणनवि पामे, एतो जगमानो गमेंरे ॥ श्रीयुग ॥४॥ चार अांगल अंतर रहेg, शोकम लीनी परें फुःख सहे, प्रजु विना कोण आगल कहे रे ॥ श्रीयुग ॥ ५॥ महोटा मेल करी श्रापे, बेहुने तोल करी थापे, सजान जस जगमा व्यापे रे ॥ श्रीयुग० ॥६॥ बेहुनो एक मतो थावे,
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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