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________________ तृतीयपरिवेद. णीमे जो धर्माराधन करतो अवश्य शुज फलकों प्राप्त कर शक्ता हे. ___ अतएव पंच पर्वणीमे विशेष धर्माराधन तप जपा दिक करना और उत्तर गुणकी वृद्धि के लिए स्नान, मैथुनादिकका अवश्य त्याग करना. पर्वणीमे अव श्य पौषध करना. न बन शके तोनी प्रतिक्रमण सा मायक जप तपादि अवश्य करना. पर्वणीमे कल्याणकादि तप करना. उपवास एका शणा, आयंबिल, बियाशणा, नीवी प्रमुख तपसे विं शति स्थानक तप आराधना. __ जो विधि पूर्वक यह तप आराधन किया जाय तो परम सुखके प्रदायक, सर्वोत्कष्ट तीर्थंकर गोत्र उपार्जन हो शक्ता हे. पंचम्यादि तपका उद्यापन करनेसे प्रणिधानकी पूर्णाहुती होतीहे और विशिष्ट फलकी प्राप्ति हो शक्ती है वास्ते उद्यापन अवश्य सब तपके करना. उपवास करके जो प्राणी पादिक प्रतिक्रमण कर ताहे सो अवश्य पंदरे दिनके पापकी शुद्धी करता हे और उनके उन्नय पद शुरू होशक्ते हैं. तीन चोमासीमें (आषाढ, फाल्गुण, कार्तिक की चउद सीमें) अवश्य षष्ट (बेला) करना चहियें. श्राम चनदश पंचमीके दिन उपवास, प्रतिक मण, आरंजवर्जन, अवश्य करना. जादोंकी श्रीप'
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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