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________________ २४७ जैनधर्मसिंधु न होय. तपश्चर्या हे सो सर्व इंडियों रुप मृगको वश्यकरनेमे जाल ( फांसा ) समान हे और कषाय रुप तापको मिटानेके लिए प्रादासमान ह फिर कर्म रूप अजीर्णको मिटानेके लिए जातिवंत उत्तम हरडे समान हे. जो दूरहे, कुराराध्य (फुःखसें मिलने लायक ) हे, देवताओंकोजी जो उर्लजहे, सो सब तपसे मिल शक्ताहे. क्यो कि तपकों कोई उलंघन करने समर्थ नही. पी. बजारमें जाके अपने अपने कुलके उचित अव्यो पार्जनका उद्यम करे. मित्रोंके उपकारके वास्ते, बांधवोके उदयके वास्ते, न्यायवंत न्याय लक्ष्मीका उपार्जन करे. क्योंकी केवल अपना पेट कोन नही जर शक्ता हे ? नीच जनोचित व्यापार करना नही और दूसरोंसें जी कराना नही. क्योंकि संपदा पुण्यकर्मसे बढतीहे परं पापसे बढती नहि.कदापि पाप व्यापा. रसे लक्ष्मी बढे परं उसका परिणाम श्रला नहीहे. जिस व्यापारमे बहुत श्रारंजहोय, महापापहोय, लोकमे निंद्याहोवे एसा होय, श्ह लोक परलोकसे विरुरू होय एसे व्यापार (काम) नही करने. लोहार, चमार, मदिराकार, तेली, प्रमुख नीच जनो से अधिक लान होय तोजी व्यवहार नही रखना. एवं चरन् प्रथम याम विधि समयं । श्राको विशुफ विनयो नय राजमानः ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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