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________________ २४६ जैनधर्मसिंधु. हास्य, थुक (बलगम) का गिराना, निजा, कलह, विकथा, चार प्रकारका आहार, जिनमंदिरमे नहि करना. "हे जगन्नाथ तुमकों नमस्कार हो” इत्यादि स्तुतिका पाठ बोलके फल, अक्षत, सुपारी, जिन. राजके सन्मुख रख्खे. राजा, देव, गुरु, निमित्त शास्त्र वेत्ता इनके पास खाली हाथसें नहि जाना क्योंकी फलसें फल मीलताहे. जगवंतके दक्षिण नागमे पुरुष, दहिने नागमे स्त्री नव श्रथवा साठ हाथ दूर रहकर वंदना करे. पीछे उत्तरासण लगाके, योगमुखासें बेठके, मधुर ध्वनीसे चैत्य वंदन करे. पेटके उपर दो हाथकी कोणी रखकर, कमल डो. डाके आकार दोहाथकी दश अंगुलीयों संयोजित करे उनको योगमुखा कहतेहे. पीछे अपने घर जाके प्रातः क्रिया करे (जोजन, वस्त्र, घरके परिवारकी यथायोग्य व्यवस्था करे.) बांधव, नोकरों प्रमुखोंकों अपने अपने कार्यो में नियोजित करके बुद्धिके आठ गुण धारक पौषध शालामें जावें. शुश्रुषा (गुरुकी सेवा) श्रवण (उपदेशका सुनना) ग्रहण (स्वीकार करना) धारणा ( याद रखना) उहा (तर्क करना) अपोह (शमाधान करना) अर्थ (श्रनिप्राय समजना) तत्वज्ञान (तत्वसमजना) यह बुद्धीके श्राप गुण हे. धर्मका जाणकार होना, उ. बुछिका त्याग करना, ज्ञानको प्राप्त होना और
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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