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________________ १७२ जैनधर्मसिंधु. आराधनथी ला, शिवपद सुखश्रीकार ॥३॥ ज्ञान रहित क्रिया कही, काशकुसुम उपमान ॥ लोकालो क प्रकाशकर, ज्ञान एक परधान ॥४॥ ज्ञानी सा सोबासमें, करे कर्मनो खेह ॥ पूर्व कोमी वरसां लगे, श्रझाने करे तेद ॥५॥ देश थाराधक क्रिया कही, सर्व श्राराधक ज्ञान ॥ ज्ञान तणो महिमा घणो, अंग पांचमे नगवान ॥६॥ पंच मास लघु पंचमी, जावजीव उत्कृष्टी ॥ पंच वरस पंच मास नी, पंचमी करो शुनदृष्टि ॥७॥ एकावनही पंचनो ए, कानस्सग्ग लोगस्त केरो ॥ जमणुं करो नाव शं, टाले नवफेरो ॥॥ एणी पेरें पंचमी श्राराहीयें ए, आणी नाव अपार ॥ वरदत्त गुणमंजरी परें, रंगविजय लहो सार ॥ए॥ इति पंचमीचैत्यवंदन ॥ ॥अथ अष्टमीनू चैत्यवंदन ॥ ॥ माहा शुदि बाग्मने दिने, विजया सुत जायो ॥ तेम फागुण शुदि थामे, संनव चवि थायो॥१॥ चश्तर वदनी बाग्में, जन्म्या षन जिणंद ॥ दी दा पण ए दिन सही, हुथा प्रथम मुनिचंद ॥॥ माधवशुदि बाग्मदिने, आठ कर्म कस्यां पुर ॥ अभिनंदन चोथा प्रनु, पाम्या सुख नरपूर ॥३॥ एहिज आठम उजली, जन्म्या सुमति जिणंद ॥ श्राम जाति कलशें करी, न्हवरावे सुर इंद ॥४॥ जन्म्या जेठ वदि आपमे, मुनिसुव्रत खामी॥ नेम
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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