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________________ १३० जैनधर्मसिंधु रसिकाय करी पाखीनी पेठ पूरज्यो पाषीने स्थानके देवसी ज्यो इम डुगाड चोमासि ( अ ) त्रिगुण संवत्सरीये सर्व कहवो पढे दे वसी प्रतिक्रमण बोड्यो ज्यांथी वांदा अन हिम फेर वांदा इत्यादि सर्व करणो देवसी कीरीते समऊणो ॥ इति खरतरगच्च सामायिक ( तथा ) पंच प्रतीक्रमण वीधी समाप्त ॥ अथ प्रचलग प्रतिक्रमण विधि | ॥ प्रथम नवकार कढ़ी एक ख० देई इनकार सुदराई सुद देवसी कढ़ी गुरुने सुखसाता पूबी इरिया वदी तस्सोत्तरी० अन्नच कही एक लोगस्सनो जसग्ग करी (प्रगट ) लोगस्सक दै (पी) इवाका०सं०जग० गमणागमण आलोनं तेकदै वै ॥ गमणा गमण ॥ मारगने विषे जातां याव तां पृथ्वी काय अप काय ते काय वाकाय वनस्पतिकाय, त्रसकाय, नील, फूलमाटी, पाणी, कण, कपाशिया, स्त्रीयादी तणो संघ हुवो दोय ते सविहुमन वचन कायायें करी तस्स मिचामिकमं ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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