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________________ प्रथमपरिच्छेद . १०३ रहियें तिदां सुधी सर्व देवं, पण चैत्यवंदनस कलाऽर्हतनुं कहेतुं, ने थोयो स्नातस्यानीक देवी. पी खमासमा देईनें इवाकारेण संदि सद जगवन् देवसिच् यालोच्य परिक्ता इ चाकारेण परकी मुहपत्ति पडिले हुं. एम क दी मुहपत्ति पडिले दियें पवी वांदणां बे दीजें, पठी इछाकार० संबुदा खामणेणं अनुहिहुं नंतर परिक खामेनुं इवं खामेमि परिकां पनरस दिवसाणं, पनरस राइप्राणं, जंकिंचि अपत्तियं० ॥ कही इवाकारेणसं० ॥ परिक आलोएम इवं आलोएमि जो मे परिकर्ड इरो कर्ज कदी इवाकारेण सं० ॥ पखीच्य तिचार प्रालोनं एम कही प्रतिचार कढ़ियें. प बी एवंकारे श्रावकतणे धर्मे श्रीसमकित मूल बा रव्रत, एकशो चोवीश अतिचारमांदे जे कोइ अतिचार पद दिवसमादे सूक्ष्म, बादर, जाणतां अजाणता हु होय, ते सवे हुं मनें, वचनें, कायायें करी मामि डुक्कडं ॥ सवसवि परिक डुचित्ति, नासिय, डुच्चि, इवाकारेण संदिस्सद जगवन् तस्स मिचामि कम || बाका ס
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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