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________________ प्रथमपरिच्छेद . वीर्याचारना ऋण प्रतिचार ॥ प्रणगूदिय बलविरजं० ॥ पढवे, गुणवे, विनय वैयावच्च, देवपूजा, सामायिक, पोसद, दान, शील, तप, नावनादिक धर्मकृत्यने विषे मन, वचन, काया तणुं वतुं वल वीर्य गोपव्युं, रूमा पंचांग खमा समण न दीघां, वांदा तणा प्रावर्त्तविधिसाच व्या नहिं. अन्यचित्त निरादरपणें बेठा, उताव लुं देववंदन, पडिक्कमणुं कीधुं ॥ वीर्याचार वि थियो मेरो जे कोइ प्रतिचार प०॥१६॥ ७१ नाणाइञ्प्रठ पश्वय,समसंलेदणु पण पनरक मेसु बारस तव विरिच्प्रतिगं, चनधी संसय इ यारा ॥ १ ॥ पडिसि दाणं करणे ० ॥ जिन प्रतिषेध अनदय, अनंतकाय, बहुवीजन क्षण, मदारंज परिग्रहादिक कीधां, जीवाजीवादिक सूक्ष्म वि चार सद्दह्या नहीं, आपणी कुमति लगे उत्सूत्र प्ररूपणा कीधी, तथा प्राणातिपात, मृषावाद, प्रदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोन, राग, द्वेष, कलह, अयाख्यान पैशु, न्य, रति रति, परपरिवाद, मायामृषावाद, मिथ्यात्वशल्य, ए प्रदार पापस्थानक कीधां,
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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