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________________ विचार करने लगा कि यह कैसा अनर्थ है कि तुच्छ राज्य के लिए भ्रातागण एक दूसरे के लिए यमदूत सिद्ध हो रहे हैं। कर्ण को शोकमग्न देखकर दुर्योधन ने आकर उसे सांत्वना प्रदान की व कहा कि यह शोक प्रकट करने का समय नहीं है। हमें धैर्य धारण कर अर्जुन को निहत कर स्वपक्ष की विजय का मार्ग प्रशस्त करना है। यह सुनकर कर्ण साहस पूर्वक पुनः पार्थ से युद्ध करने लगा। दोनों धनुर्धरों की अनवरत बाण वर्षा से समस्त व्योम मंडल आच्छादित हो गया। युद्ध की विभीषिका को देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्रोत्साहित किया। तब पार्थ ने द्विगुणित उत्साह से युद्ध कर कर्ण के धनुष बाण को नष्ट कर दिया। इसके पश्चात् पार्थ ने अपने धनुष पर एक दिव्यास्त्र का स्थापन किया एवं उस दिव्यास्त्र के रक्षक देव का स्मरण कर उसे कर्ण के ऊपर निक्षेपित कर दिया जिससे कर्ण का मस्तक भूलुण्ठित हो गया एवं क्षण भर में ही कर्ण का महाप्रस्थान हो गया। चंपा नगरी के नृपति, अमित पराक्रमी, महारथी वीर कर्ण के निहत होने का समाचार जब कौरवों के पास पहुंचा तो उनके नेत्रों तले अंधेरा छा गया। सभी शोक में विह्वल होकर विलाप करने लगे व सोचने लगे कि इस युद्ध में भीष्म पितामह, गुरू द्रोणाचार्य, शल्य व कर्ण जैसे योद्धाओं के मारे जाने के बाद अब हमें युद्ध की बागडोर अपने हाथों में ले लेनी चाहिए। इसके पश्चात् दु:शासन आदि कौरव समर भूमि में उपस्थित होकर युद्ध करने लगे। किन्तु एकाकी भीम ने ही उन सब वीरों का प्रतिकार किया एवं सबको निहत कर यमपुर का अतिथि बना दिया। भीम के इस भीषण रण तांडव को देखकर दर्शकगण आश्चर्य चकित रह गये थे। जब दुर्योधन को यह सूचना मिली कि भीम ने उसके अनुजों का वध कर डाला है, तो वह स्तब्ध रह गया, मानों उस पर वज्रपात हो गया हो। चहुँओर उसे अंधकार ही अंधकार अनुभूत हो रहा था। रथारूढ़ होकर उसने उस संक्षिप्त जैन महाभारत - 145
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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