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________________ तभी भीम अश्वत्थामा को संबोधित कर बोला कि पहले तो हमने तुम्हें गुरु पुत्र समझकर अनाहत मुक्त कर दिया था, पर अब तेरी रक्षा हो पाना असंभव है। ऐसा कहकर भीम ने अश्वत्थामा पर गदा से तीव्र प्रहार किया; जिससे अश्वत्थामा वहीं मूर्छित होकर गिर पड़ा। भीम ने उसके हस्ती का भी संहार कर दिया। इसी समय कुछ लोगों ने युधिष्ठिर के पास जाकर निवेदन किया कि द्रोणाचार्य ने आज हमारी सेना का काफी संहार किया है; अतः उनके अवरोध का कोई उपाय करना चाहिए। हमारी दृष्टि में एक उपाय है। गुरू द्रोण अपने पुत्र अश्वत्थामा से अत्यधिक स्नेह करते हैं। यदि हम प्रचारित कर दें कि अश्वत्थामा निहत हो गया, तो निश्चित ही गुरू द्रोण युद्ध स्थगित कर देंगे व इस तरह अपनी सेना की रक्षा हो जायेगी । यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने कहा कि तुम लोग मुझे असत्य कहने के लिए प्रेरित कर रहे हो, यह असंभव है। मिथ्या कथन करना महान पाप होता है। इससे कर्मों का बंध होकर दुख की ही प्राप्ति होती है। किन्तु स्वजनों के अत्यधिक आग्रह करने पर अंत में विवश होकर युधिष्ठिर ने गुरु द्रोण के पास जाकर कहा कि अश्वत्थामा निहत हो गया है। वह कुछ आगे कहते कि इसके पहले ही द्रोणाचार्य का धैर्य विलीन हो गया। उनके हाथ से धनुष छूट गया व नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली। तभी युधिष्ठिर ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि जो अश्वत्थामा निहत हुआ है; वह मनुष्य नहीं हस्ती है। इस हस्ती का नाम भी अश्वत्थामा था। यह सुनकर गुरु द्रोण कुछ शांत हुए। इतने में अवसर पाकर दृष्टद्युम्न ने खड़ग के प्रहार से द्रोणाचार्य का मस्तक विच्छिन्न कर दिया, जिससे वे महाप्रयाण कर गये। द्रोणाचार्य के निहत होने से दोनों पक्षों में उदासी छा गई एवं सभी को गहन विषाद हुआ। अर्जुन को तो इस घटना का इसलिए भारी खेद हुआ कि उसके ही पक्ष के एक योद्धा ने अन्यायपूर्वक गुरु द्रोणाचार्य की इहलीला समाप्त कर दी। किन्तु इस बड़ी घटना के बाद भी युद्ध संक्षिप्त जैन महाभारत 143
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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