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________________ अपने बाणों की वर्षा से पूर्णतः आच्छादित कर दिया। यद्यपि इतना होने पर भी पितामह को किंचित भी आघात नहीं लगा। दूसरी ओर दृष्टद्युम्न के बाण जिनको भी बिद्ध करते थे, उनके वक्षस्थल में भयंकर घाव हो जाते थे। इधर गांगेय भीष्म के बाणों का भी शिखंडी पर कोई अनिष्टकर प्रभाव नहीं हो रहा था। पितामह भीष्म ने जिन-जिन बाणों का प्रयोग किया, वे सब बीच में ही निष्क्रिय कर दिये गये। शिखंडी ने पितामह भीष्म के धनुष को नष्ट कर दिया। वह पितामह भीष्म के कवच को भी विच्छिन्न करने में समर्थ हो गया। इससे शिखंडी का साहस उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया व उसने शीघ्र ही पितामह के सारथी, उनके रथ एवं ध्वजा को भी नष्ट कर दिया। वाहनविहीन हो जाने पर भी भीष्म पितामह हाथ में खड़ग लेकर युद्ध करते रहे। किन्तु अंत में शिखंडी ने भीष्म पितामह के एकमात्र अस्त्र खड़ग को भी खंडित कर दिया एवं उनके वक्षस्थल को भी सरों से बिद्ध कर दिया। इस प्रकार वह पराक्रमी गांगेय भीष्म निरस्त्र आहत होकर धराशायी हो गये। परम आदरणीय पितामह भीष्म को इस दयनीय अवस्था में भूलुन्ठित देखकर सभी योद्धाओं ने युद्ध को स्थगित कर दिया। दोनों पक्षों के सभी योद्धा निरस्त्र होकर पितामह के समीप एकत्रित हो गये एवं उनके उत्तम अनुकरणीय गुणों की प्रशंसा करने लगे। तभी अपना अंत सन्निकट समझकर भीष्म पितामह ने कौरवों और पांडवों को संबोधित करते हुए कहा- इस अंतिम समय में तुम लोगों से यही आशा करूंगा कि पूर्व बैर को भुलाकर इस युद्ध को स्थगित कर दो एवं परस्पर मित्रतापूर्वक निवास करो। नौ दिन के युद्ध से किसे क्या लाभ हुआ? हां, इतना अवश्य हुआ कि कितने ही वीरों की प्राण हानि हुई। उनके आश्रित परिवारों के लोग अनाथ एवं असहाय हो गये। युद्ध की विभीषिका सबने देख ली है। तथापि जो होना था सो हो गया। अब भी समय है कि सब लोग सचेत हो जावें एवं दशलक्षण धर्म को स्वीकार कर लें। उसी समय हंस व परम हंस नाम के दो चारण ऋद्धिधारी संक्षिप्त जैन महाभारत - 131
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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