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________________ कि साम नीति दोनों पक्षों को शान्ति का कारण होती है; अतः इस नीति के अनुसार हमें भी युद्ध के पूर्व जरासंध के पास अपने दूत को भेजना चाहिए। तब लोहजंग कुमार नाम के व्यक्ति को कुछ सेना के साथ दूत बनाकर जरासंध के पास भेजा गया। उसने आगे जाकर पूर्व मालव देश में पड़ाव डाला। यहीं उन्होंने मासोपवासी व वन में आहार लेने की प्रतिज्ञा करने वाले तिलकानंद व नंदन नाम के मुनिराजों को आहार दान दिया। आहार दान के पश्चात् वहां पंच-आश्चर्य हुए। इससे वह स्थल देवावतार नाम का तीर्थ बन गया। लोहजंग दूत ने जरासंध के महलों में पहुँचकर उनसे चर्चा कर जरासंध को 6 माह तक संधि के लिए मना लिया व वह द्वारिका वापिस आ गया। संधिकाल बीतने पर जरासंध अपने मित्रों की सेनाओं के साथ कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध हेतु पहुँच गया। वहीं दुर्योधन की महासेना भी कुरुक्षेत्र पहुँच कर जरासंध की सेना में एकमेक हो गई। व्योममार्ग से आकर कुछ विद्याधरों ने भी जरासंध को चारों ओर से घेरकर सुरक्षित कर लिया। जरासंध की सेना में अब भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य अश्वत्थामा, जयद्रथ, कृष, चित्र, कर्म, रुधिर, इन्द्रसेन, हेमप्रभ, दुर्योधन, दुःशासन, कलिंग आदि बड़े-बड़े राजागण थे। वे सभी अपनी-अपनी सेनाओं के साथ कुरुक्षेत्र में जरासंध के साथ आकर खड़े हो गये थे। दूसरी ओर श्रीकृष्ण के नेतृत्व में पांडवों की सेना ने भी यादवों की सेना व मित्र राजाओं की सेना के साथ कुरुक्षेत्र के युद्ध क्षेत्र में आकर अपना मोर्चा सम्हाल लिया। इस पक्ष के योद्धाओं में अदम्य पराक्रमी बलदेव, जयशील, समुद्रविजय, वसुदेव, अनावृष्टि, पांचों पांडव, प्रद्युम्न, दृष्टद्युम्न, सत्यक, जय, भूरिश्रव, भूप, सारण, हरिण्यगर्भ, शंब, अक्षोम्य, विभदरूप, भोजसिंधु, परिवज्र, द्रुपद, पोंड्र, भूमति, नारद, वृष्टि, कपिल, क्षेमधूर्तक, महानेमि, पदमरथ, अक्रूर, निषध, दुर्मुख, उन्मुख, कृतवर्मा, विराट, चारू, कृष्णक, विजय, यवन, भानु, शिखंडी, सोमदत्तक, वान्हिक आदि महारथी अपनी-अपनी सेनाओं के साथ युद्ध को तत्पर थे। समुद्रविजय की एक अक्षोहिणी 120 - संक्षिप्त जैन महाभारत
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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