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________________ से इसका अनुवाद आरंभ किया । उन्होंने भारतभर की पाठशालाओं में पढाई जाने वाली ३४९ प्राकृत गाथाओं वाले ग्रंथ का गुजराती भाषा में अनुवाद किया । आचार्य श्री ने अत्यंत सावधानीपूर्वक भाषांतर करते हुए, शब्द काठिन्य से वचते हुए, भाषा-सौष्ठव को समाहित करते हुए, अशुद्धिरहित, शास्त्र सम्मत, अनेक ग्रंथी का अन्वेषण करके, सारभूत पदार्थों का समन्वय करके इसे लोकभोग्य वनाया है । इस ग्रंथ के उपोद्घात में आचार्यश्रीने ग्रंथ की ऐतिहासिकता एवं प्रामाणिकता के विषय में संशोधनात्मक विवेचन विस्तार से लिखा है । आज के वैज्ञानिक युग के वायरलेस - रेडियो फोटोग्राफ - फोटोग्राफिक और टेलिविजन पद्धति आदि का शास्त्रीय दृष्टि से समन्वय करते हुए कई दृष्टिविंदु दिये हैं जो विशेष रूप से मननीय है । जैन अभ्यासियों की क्षतियों का भी उल्लेख किया है । जैनधर्म, जैनप्रजा एवं जैन समाजकी प्रवर्तमान परिस्थितियों का चित्रण किया है | पाश्चात्य एवं शास्त्रीय मान्यताओं के विसंवाद का तुलनात्मक विवेचन किया है | ग्रंथ में चार अनुयोग किस तरह घटित होते हैं वह भी बताया है । इस ग्रंथ की तृतीय आवृत्ति सं. २०५३ में प्रकाशित हो चूकी है । इसमें ग्रंथ की मूल प्राकृत गाथा के साथ उसकी संस्कृत छाया और शब्दार्थ दिया है । फिर मूल अर्थ और विशेषार्थ लिखकर गाथा को सुस्पष्ट किया है । I इस ग्रंथ में विज्ञान से संबंधित जैन अभ्यासियों के लिये जानने योग्य दृष्टिविंदु एक लेखमाला में प्रस्तुत किये 1 लेखांक (१) में पृथ्वी की रचना, उत्तर ध्रुव, दक्षिण ध्रुव, अष्टापद पर्वत आदि की विशेष वातें बताई है । लेखांक (२) में ज्योतिपचक्र के विषय में जैनागम एवं अर्वाचीन वैज्ञानिक मान्यताओं का भेद बताया है । लेखांक (३) में गुरुत्वाकर्पण पर विशेष विवेचन किया है । लेखांक (४) में भारत के प्राचीन वैज्ञानिकों के गुरुत्वाकर्षण एवं पृथ्वी के विपय पर उपलब्ध प्रामाणिक तथ्य उजागर किये हैं । लेखांक (५) में 'जैनधर्म और विज्ञान की कुछ जाननेयोग्य वातों पर प्रकाश डाला है । लेखांक (६) और (७) में विविध दर्शनों की पृथ्वी के विषय में जो मान्यतायें हैं उसकी चर्चा की है । लेखांक (८) से (१४) में समय, दूरी, अणु-परमाणु, तारा-नक्षत्र आदि अनेक विषयों पर जैन धर्म की विशेष मान्यताओं की एवं स्वयं के निरीक्षण पर कई विचारणीय वातें लिखी 1 वृहत् संग्रहणी या संग्रहणीरत्न अपरनाम ' त्रैलोक्यदीपिका' के विषय-वस्तु का संक्षिप्त में परिचय कराना चाहती हूँ । ૫૧૮ + ૧૯મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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