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________________ के अंत में सारांश भी दिये हैं। नियमसार प्राभृत पर 'स्याद्वाद चंद्रिका' संस्कृत टीकाः प.पू. माताजी ने वी. सं. २५०४ में इसी ग्रंथ पर संस्कृतीका लिखने का भाव बनाया और लगभग ६२ ग्रंथो के उद्धरण आदि के साथ नय व्यवस्था द्वारा गुणस्थान आदि के प्रकरण को स्पष्ट करते हुए वी. सं. २५११ में 'स्याद्वाद चन्द्रिका' टीका लिखकर पूर्ण की। टीका का हिंदी अनुवाद भी स्वयं किया। प्रसंगोपात्त भावार्थ-विशेपार्थ देकर विषय को अच्छी तरह से स्पष्ट किया है। नियमसार ग्रंथ की १८७ गाथाओं को प.पू. माताजी ने तीन महा-अधिकारों एवं ३७ अंतर-अधिकारो में विभाजित किया है। पूर्ण-रूप से आप परंपरा का अनुसरण करते हुए इस टीका का लेखन किया है। अध्यात्म को आत्मसात् करने के लिये यह टीका अति उपयोगी है। इसका द्वितीय संस्करण वी. सं. २५३१ (सन् २००५) में ५२+४७४ पृप्टसंख्या के साथ प्रकाशित हो चुका है। 'स्याद्वाद चन्द्रिका संस्कृत टीका' वीसवीं सदी की अनोखी उपलब्धि हैं। इसके अतिरिक्त इसी ग्रंथ पर 'नियमसार कलश संस्कृत टीका - स्याद्वाद चन्द्रिका टीका का सार एवं नियमसार का सार' जैसी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ भी हमें दी है। 'षटखण्डागम' ग्रंथ की 'सिद्धान्त चिंतामणि' संस्कृत टीकाः प.पू. माताजी ने वीर नि. सं. २५२१ में अपनी आयु के ६१वें शरद पूर्णिमा के दिन अपनी सुशिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती के अनुरोध पर जैनागम के सर्वोच्च सिद्धान्त ग्रंथ 'षटखण्डागम सूत्र ग्रंथ' का मंगलाचरण १७ श्लोको में लिखकर एक सरल संस्कृत टीका लिखने का प्रारंभ किया। प.पू. माताजीने अंतिम श्लोक में कहा है कि यह 'सिद्धान्त चिंतामणि टीका' सिद्धान्त ज्ञानरूपी अमृत को देने में कुशल है। यह टीका अपनी आत्मा में और अन्य भव्य आत्माओं में केवलज्ञान को उत्पन्न करने के लिये वीजभूत होवे ऐसी प्रार्थना की है। षटखण्डागम का स्तोत्रः वीर नि. संवत ६०० (सन् ७४) के आसपास संपूर्ण अंग और पूर्व के एकदेशज्ञाता, श्रुतज्ञान को अविच्छिन्न वनाने की इच्छा रखने वाले महाकारुणिक श्रीधर सेनाचार्य के मुखकमल से ‘अग्रायणीय पूर्व' नामक द्वितीय पूर्व के ‘चयनलब्धि' नामक पाँचवी वस्तु के 'कर्मप्राभृत' नामक चौथे अधिकार से निकले हुए जिनागम का ज्ञान प्राप्त करके 'पटखण्डागम' यह सार्थक नाम देकर आ. श्री पुष्पदंत एवं आ. श्री भूतबलि ने सिद्धान्तसूत्रों को लिपिवद्ध किया। अव तक हुये अन्वेषणों के अनुसार यह प्राचीनतम लिखित उपलब्ध आगम है। इस ग्रंथाधिराज पर समय-समय पर संभवतः कई टीकायें लिखी गई हो सकती है पर आज केवल एक टीका उपलब्ध है जो १२०० वर्ष पूर्व श्री वीरसेनाचार्यकृत प्राकृत एवं संस्कृत मिश्रित 'धवला' टीका के नाम से प्रख्यात है। ૨૬૮ + ૧૯મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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