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________________ कर लिया। इस कार्य की गुणवत्ता देखकर न्याय दर्शन के उच्चकोटि के विद्वान आल्हादित हो गये। तव से प.पू. माताजी की दिव्यज्ञान प्रतिभा से लोग विशेष परिचित होने लगे। यह हिंदी टीका ‘स्याद्वाद चिंतामणि' के नाम से ३ भागो में प्रकाशित हो चुकी है। अनुवाद की पूर्णता पर अपनी असीम प्रसन्नता की अभिव्यक्ति अनुष्टुप, मन्दाक्रान्ता, आर्या और उपजाति इन चार छंदो का प्रयोग करते हुए २४ श्लोको में एक 'अष्ट सहस्री वंदना' संस्कृत में लिखि जिसमें ग्रंथ का प्राचीन इतिहास Dथ लिया है। आज से लगभग १८०० वर्ष पूर्व आचार्यश्री समंतभद्र स्वामी ने ११४ कारिकाओं में 'देवागम स्तोत्र' अपरनाम 'आप्त मीमांसा' नामक ग्रंथ श्री उमास्वातीजी रचित तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण पर टीका रूप में लिखा। इन्ही कारिकाओं पर आ. श्री अकलंकदेवने ८०० श्लोक प्रमाण संस्कृत टीका ‘अष्टशती' लिखी। इन्ही को लेकर अव से लगभग १२०० वर्ष पूर्व आ. श्री विद्यानंदस्वामी ने ८००० श्लोक प्रमाण विस्तृत संस्कृत टीका रचकर उसका नाम 'अष्ट सहस्त्री' दिया और इसके विपय की क्लिष्टता को ध्यानमें रखते हुए आ. श्री ने स्वयं इसे 'कष्ट सहस्री संज्ञा से संबोधित किया है। प.पू. माताजी ने इस ग्रंथ की हिंदी टीका रचकर और जगह-जगह विशेपार्थ और भावार्थ देकर जन-जन के लिये 'कष्ट सहस्री' कहे जाने वाले इस ग्रंथ को 'सुगम सहस्री' बना दिया है। इस ग्रंथ के प्रथम भाग के तीन संस्करण छप चुके है। वी. सं. २५३४ में प्रकाशित तृतीय संस्करण की पृष्टसंख्या ९८+४४४ है और १२० पृष्टीय न्यायसार ग्रंथ जोडने से इसकी उपयोगिता कई गुना बढ़ गई है। द्वितीय भाग का दुसरा संस्करण वी. सं. २५३५ में पृष्टसंख्या ८६+४२४ एवं तृतीय भाग का दूसरा संस्करण वी. सं. २५३६ में पृष्ट संख्या ८६+६०८ के साथ प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रंथ के प्रथम भाग के विमोचन के अवसर पर राजथानी विभागो के अन्दर चारों सम्प्रदायों के अनेक वरिप्ट साधु-साध्वियों के सानिध्य में प.पू. माताजी को 'न्याय प्रभाकर' की उपाधि से अलंकृत किया गया। नियमसारः आ. कुन्दकुन्द देव के नियमसार प्राभृत का हिंदी अनुवाद वी. सं. २५०२ में पूर्ण किया। इस ग्रंथ की आचार्य पद्मप्रभ मलधारीकृत संस्कृत टीका की हिंदी टीका प.पू. माताजीने अतीव सुगम शैली में अथक परिश्रमपूर्वक की है। इसमें भावार्थ - विशेषार्थ भी दिये हैं। अनेक स्थानों पर गुणस्थान का स्पष्टीकरण किया है। वीर सं. २५११ में ५८२ पृष्ठों में यह ग्रंथ प्रकाशित हो चुका है। नियमसार पधावलीः वीर सं. २५०३ में प.पू. माताजी ने इसका हिंदी पद्यानुवाद किया है। इसमें मूल गाथाएँ, पद्यानुवाद तथा गाथाओं के नीचे संक्षेप में अर्थ दिया है। अध्यात्म-रस का आनन्द लेने के लिये पद्यानुवाद सुरुचिकर है। प्रत्येक अधिकार साहित्य-साम्राज्ञी प. पू. ज्ञानमती माताजी + २६७
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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