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________________ मधुर स्वर से काव्यपाठ करते तो परिषद मंत्र मुग्ध होकर सुनती। आपकी हर कविता एक न एक संदेश या विषय लिए हुए होती थी, जो मनोरंजन के साथ-साथ पाठक के हृदय व मन को मोह लेती थी। आपने हिंदी, राजस्थानी एवं संस्कृत में कविताए लिखी। अपने गुरु कालुगणी की प्रेरणा से संस्कृत में काव्य लिखने लगे और १८ वर्ष जैसी अल्पवय में ही कालू कल्याण मंदिर की रचना कर डाली । प्रेक्षा संगान प्रेक्षा ध्यान की प्राथमिक जानकारी प्रदान करने वाली एक महत्त्वपूर्ण कृति है । इसके ११७ पद्यो में आपने ध्यान जैसे गूढ़ विषय की जिस सरलता, सहजता एवं सरसता से व्याख्या की है उसे तो पढ़ने वाला पाठक ही समझ सकता है। कभीकभी तो पढ़ते-पढ़ते पाठक स्वयं ध्यान की गहराई में उतरने के लिए अधीर हो जाता है। अगर इन पद्यों को कण्ठस्थ कर लिया जावे तो अवबोध एवं प्रयोग की दृष्टि से इस सृजन की सार्थकता और अधिक सिद्ध हो जाती है। कालू उपदेश वाटिका, भरत मुक्ति, आषाढ़ भूति, अग्नि परीक्षा आदि आपकी अद्भूत रचना शक्ति के परिचायक है । कालूयशोविलास में आपने अपने आचार्यश्री का इस तरह से वर्णन किया कि एक चित्रकार एवं एक कवि की भूमिका में कोई फर्क ही नजर नहीं आता । आपने अनेकों गीत लिखे है, जिनमें इतिहास है, संस्मरण है, सिद्धान्त है, श्रद्धा है और आस्था है। इनमें आत्मविभोर कर देने की शक्ति है तथा काव्य की श्रव्य और दृश्य दोनों विधाओं से साक्षात्कार करा देते है। आपके गीतों में अद्भुत करिश्मा है। उनमें आध्यात्मिक विषयों से लेकर आम समस्याओं व कार्यों की झलक मिलती है यथा अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान, सामाजिक कुरीतियां आदि । आपने संस्कृत और हिंदी भाषा में गद्य और पद्य दोनों में कई जीवनवृत्त लिखे। मुख्यतः भगवान महावीर, प्रज्ञा पुरुष जयाचार्य, महामनस्वी, आचार्यश्री, कालूयशोविलास, सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति आदि । आपने अपने धर्म संघ में शिक्षा का एक अच्छा आदर्श तरीका दिया था। साधु-साध्वियों के लिए अध्ययन व अनुसंधान की अनेक शाखाओं खोली । इनकी प्रारम्भिक शिक्षा के लिए 'शैक्ष शिक्षा' तथा 'धर्मबोध' लिखवाया । साहित्य संवर्धन के कार्य में पदयात्रा जनजागरण की महान यात्रा थी। अपने जीवन में उन्होंने ८० हजार किमी से भी ज्यादा की पदयात्रा की। उनकी पदयात्रा का मुख्य उपदेश्य था । १. मानवता का निर्माण, २. साम्प्रदायिक एकता, ३ . धर्मक्रान्ति। वे कहा करते थे मैं सर्वप्रथम मनुष्य हूं, फिर धार्मिक, फिर जैन और फिर तेरापंथी ।' अपने कार्यो एवं भावनाओं को मूर्त रूप देने, प्रचूर मात्रा में साहित्य निर्माण करने एवं करवाने, शिक्षा, साधना, रिसर्च, सेवा और सांस्कृतिक संरक्षण, आगम सम्पादन, प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान आदि कार्यों को सम्पन्न करने हेतु सन १९७१ में लाडनूं में जैन विश्व भारती की स्थापना की। साथ ही यहाँ शिक्षण का कार्य भी आचार्य श्री तुलसी के साहित्यिक अवदान + १८
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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