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________________ आचार्य विजयवल्लभ बम्बई में विराज रहे थे। दहेज का विनाशकारी अजगर किस तरह से समाज को निगल रहा है, ऐसे समाचार भी आते रहते थे। अत्यंत दर्द भरे शब्दों में उन्होंने कहा था - ____ आज जो वर विक्रय का रोग लगा हुआ है, यह रोग इतना चेपी है कि समाज इस भयंकर रोग के कारण मुर्दा सा बन रहा है। जहां देखो वहां लडकों का नीलाम हो रहा है। लडकी वालों से बडी बडी रकमें तिलक, बीटी (अंगूठी) के रूप में मांगी जा रही है। सोने के जेवर से कार तक ही नहीं, अब तो विदेश जाने और पढाई का खर्च तक मांगा जाने लगा है। पराये और बिना मेहनत के धन पर गुलछरें उडाए जा रहें हैं। युवकों के लिए यह बेहद शर्म की बात है।' पंजाब में शुद्ध सनातन जैन धर्म के स्वरूप का पुनः प्रकाश आचार्य विजयानंद सूरि द्वारा हुआ। मूर्ति पूजा के बारे में कई भ्राँतियों का निवारण विजय वल्लभ को करना पडा। द्रव्य पूजा तथा भाव पूजा के अनेक शास्त्रीय प्रमाण उन्होंने दिए - 'द्रव्य भाव पूजन कही, महा निशिथे बात। इस के साथ ही प्रभु कीर्तन से होते है, निःश्रेयस पद सार' 'वंदन पूजन भाव से, लीजे पद अभिराम', 'सुरसम भविजन पूजा रचावे' तथा 'पूजा प्रभु की करी, सफल वो ही घरी' नर से नारायण होने वाली बात प्रभु पूजा द्वारा संभव है - 'पूजक पूजा कारणे रे, स्वयं पूज्य पद लेत।" विजयवल्लभ के काव्य की विधाएं आचार्य विजयवल्लभ ने कविता की विभिन्न विधाओं में रचना की। महा-काव्य, खण्ड काव्य, काव्य नाटिका, गीति नाटिका, मुक्तक, स्तवन एवं गीत, ये सभी काव्य-शास्त्र के लक्षणों से परिसम्पन्न हैं। प्राचीन व नवीन छंदों, अलंकारों, शैलियों और राग-रागनियों में काव्य को ढाला है। गजल और कव्वाली का प्रयोग भी उनके हिंदी गीतों में हुआ। उनका वात्सल्य वर्णन अत्यंत सरल, सरस और स्वभाविक है। सम्यक ज्ञान, दर्शन और चरित्र की रत्नत्रया के मूल में से उन के काव्य का प्रस्फुटन हुआ है, जिसमें उन्होंने न केवल समकालीन साहित्य-परम्पराओं को संजोया, बल्कि ‘सगुण' और 'निर्गुण' का समीकरण भी किया। वे ज्ञान और भक्ति दोनों के समन्वयक थे। काव्य में श्री आनंदघन के वैराग्य का शांत-निर्मल अध्यात्म और साम्प्रदायिक निरपेक्षता के साथ-साथ उपाध्याय यशोविजयजी की फकीरी की मस्ती और आचार्य विजयानंदसूरिजी की अतुलनीय दार्शनिकता भी रही हुई है। वे दार्शनिक विषयों को सरल भाषा में समझाने का प्रयास करते हैं। पारम्परिक मान्य धारणाओं को अपने काव्य के माध्यम से वाणी दी है। कबीर के दोहे, 'लाली मेरे लाल की... के समान विजयवल्लभ भी प्रभु की लाली में समस्त जगत को लाल ही देखते है - आचार्यश्री विजयवल्लभसूरि व्यक्तित्व-कवि-काव्य + ७८
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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