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________________ * भव्य कनक को निर्मल करता, पूरण ब्रह्म समाधि * आतम लक्ष्मी गगन भेदी, अलख जलवा प्रभु तेरा, परम ज्योति श्रुति वल्लभ, मिला नहीं हर्ष पारा है। गगन (ब्रह्मरंध्र ), परम ज्योति (केवल ज्ञान) श्रुति वल्लभ (अनाहत नाद) * मथानी घूमती दधि में, प्रकट करती है माखन को भावना शुद्ध तप दाने, चिदानंद रूप उपजाने । * जोग समाधी धार के, भोग रोग को छार आतम रस में लीन हो, करम भरम सब जार। * ध्याता ध्यान ध्येय पद होवे, भाव से त्रिपुटी शिवफल पावे, * मेरे मानस सरोवर में प्रभु तूं हंस सम राजे, धरी संपद निजातम की, अनाहद बाजते बाजे । जीवन में इन्द्रीय संयम का होना परमावश्यक है। अपनी कवि सुलभ सहजता से वे कहते हैं - 'ब्रह्मा भी ब्रह्महीन हो तनिक न पावे मान।' पतित मनुष्य चैतन्यहीन हो जाता है - - * काम सुभट वश जीव हो, जाने नहीं निजरूप, * ब्रह्म नाम है ज्ञान का, ब्रह्म नाम है जीव, सदाचार ब्रह्मनाम है, रक्षा वीर्य सदीव ॥ * विषयन संग राज्यों रे, बंदर से सिंह हारा ॥ विजयवल्लभ ने 'सहधर्मी के अपमान को महावीर का अपमान कहा। वे सारी उमर मध्यम वर्ग के उत्कर्ष की योजनाएं बनाते रहे। वे सोच भी नहीं सकते थे कि 'श्रावक होकर भिक्षा मांगे, अधमा अधम कहाई ।' घनी जैनों को 'साहमी वच्छल बहुला कीजे का उपदेश दिया तथा 'घर अनुसारे दान करीजे निज शक्ति अनुसारे' कहकर दान और समर्थता में संबंध जोडा । जैन मुख्यतया व्यापारी हैं। अतः अपनी कविता में व्यापारियों को चेतावनी दी जिस व्यापार को निंदे लुकाई, इह परलोक विरुद्ध जो थाई, लाभ अति होवे व्यापारे, तो भी इनको त्यागो । * माल चोरी का हाथ न लावे, * * कुडा तोला, कुडा मापा, कूडा लेख न करिये, खोटे जन को वयण न भाखे, झूठी गवाही न भरिये । * लोभ से चलती नहीं नीति ॥ ૭૮ - ૧૯મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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