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________________ १६४ समरसिंह नहीं कर सकता था । इस के घोड़ों को भी गरणे से छान कर पानी पिलाया जाता था । यद्यपि वह राजा था तथापि जैनधर्म में दृढ़ श्रद्धा रखने के कारण दिन ही में भोजन कर लेता था।" महीपाल का इसी तरह का वर्णन नाभिनंदनोद्धार प्रबंध के प्रस्ताव चतुर्थ के श्लोक नं० ३४१ से ३४७ वें तक किया हुआ है। इस धर्मिष्ठ राणा महीपाल का जो मंत्री था वह भी तद्नुरूप ही था । उस श्रेष्ट मंत्री का नाम पाताशाह था । पाताशाहने भी राजा की इस प्रवृत्ति का बहुत सदुपयोग किया । पाताशाह के द्वारा भी जिनशासन की प्रभावना के अनेक कार्य किये गये । समरसिंह के भेजे हुए सेवक बहु मूल्य भेंट और पत्र ले कर राणा महीपालदेव के सम्मुख पहुँचे। राणा की आज्ञा से मंत्री पाताशाहने समरसिंह का पत्र भरी सभा में पढ़ कर सुनाया। -समरसिंह के पत्र के विचारों को जान कर राणा महीपालदेवने कहा, “ इस समरसिंह को धन्यवाद है । इस कलिकाल में भी इस का जन्म लेना सफल है जब कि इस के विचार सतयुग के जीवोंकेसे हैं। मेरा भी परम सौभाग्य है कि भारासण पाषाण की खानें मेरे अधिकार में हैं । अन्यथा मैं इस पुनीत कार्य में “हाथ कैसे बँटाता । पाताशाह ? समरसिंहने जो भेंट भेजी है वह - सधन्यवाद वापस लौटादो। पुण्य कार्य के लिए जाती हुई फलही के दाम लेना मेरे लिये परम कलंक की बात होगी। भाग्यशाली नर तो धन, जन और तन का सर्वस्व अर्पण कर के भी
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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