SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उद्धार का फरमान । स्तार से सुनाया और इस बात की ओर खान का ध्यान प्राकर्षित किया कि इस घटना के फल-स्वरूप आज सारी जैन समाज के हृदय में संताप के श्याम बद्दल छाए हुए हैं। हमारी धार्मिक स्वतंत्रता पर इस आघात से अत्यधिक हानि पहुंच रही है। यदि पाप की दया-दृष्टि रहे तो मैं इस तीर्थ का पुनरोद्धार कराने का कार्य हाथ में लूँ। तुझ पर मोटी आश, धंस हज हिन्द हुई । जनता हुई निराश, बात कही विश्वास कर ॥ यह सोरठा सुनकर खानने कहा भाई समर! यदि ऐसी ही वस्तुस्थिति है तो मेरी आज्ञा है-जाओ तुम प्रसन्नतापूर्वक उद्धार कार्य कराओ । मेरे राज्य के सब के सब राज्य कर्मचारी आपकी सहायता करेंगे । इतना ही नहीं खानने अपने प्रथम प्रधान बहिरम को श्राज्ञा दी कि समरासिंह के नाम तीर्थोद्धार करने का शाही फरमान लिख दो। बस-फिर क्या विलम्ब था। बहिरम तो आप के परम सुहृद थे ही । अतः उसने यह आदेश पाते ही अपने कार्य-सदन में जा कर समरसिंह के नाम बहुमानपूर्वक महत्व का परवाना लिख दिया । जब यह परवाना लिखा हुआ खान के पास हस्ताक्षर के लिये पहुँचा तो खान ने प्रथम प्रधान बहिरम को कहा कि समरसिंह इस राज्य के विशेष सम्मानपात्र हैं अतः अपने खजाने में से मस्तक के टोप सहित एक सोने की तसर्राफ जो मणियों और मोतियों से जड़ी हुई है, लाओ।
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy