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________________ सकेशगच्छ-परिचय । संयोग से वह आप से मिला। आपने उसे युक्तियों द्वारा सत्व मार्ग बताया और उस घातकी मार्ग से बचाया। फिर वह अपनी कन्याओं को नहीं सताया करता था। इनके शिष्य चन्द्रप्रभ उपाध्याय हुए जो बड़े विद्वान और जिन धर्मके प्रचारक थे। एक समय हरिश्चन्द्र बाचनाचार्य बुलुन्द मावाज से धर्मोपदेश दे रहे थे। व्याख्यानशाला के पास से सारंगदेव नामक राजा सवारी किये जा रहा था । वह मुनिश्री की आवाज को मोजस्वी जान कर थोड़ा ठहर गया। उसे वह उपदेश इतना भाया और सुहाया कि वह वहाँ दो घंटे तक उपदेशामृत पान करता रहा । उसने पीछे जिन धर्मके सिद्धान्तों पर पक्की श्रद्धा भी ठान तथा मान ली। इसी तरह के एक पार्श्व मूर्ति नामक साहसी वाचनाचार्य थे। उन्होंने एक अभिग्रह लिया। वह इतना कठिन था कि साधारण मुनि की ऐसी कल्पना तक न हो। वह अभिग्रह यह था जो आपने पहले ही लिख कर एक डिब्बे में डाल दिया था-" मैं उस रोज पारणा करूंगा जिस दिन एक सात वर्ष का क्षत्री नम्र रूपमें रोता हुमा मार्ग में खड़ा अपने हाथ में डोरे में सात बड़े पिरोये हुए मिलेगा।" ऐसा अभिग्रह ले आप दूसरे ग्रामों की ओर विहार कर गये । पूरे ५० दिन बाद अभिग्रह फला । आचार्यश्री देवगुप्तसूरि भूमंडल में विजयवैजंती लिये विचर हे थे। भाप विहार करते हुए बामनवली ( वणयली) पधारे
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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