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________________ ११६ समरसिंह वेदान्ती से आपने शास्त्रार्थ किया । अन्त में वह वीरभद्रद्वारा बहुत बुरी तरह से पराजित हुआ । इस प्रकार उस नगर में भी जैन धर्मकी पताका अच्छी प्रकार से फहराई । एक दिन वीरभद्रने कहा कि अब मेरी आयु के केवल १९ दिन ही शेष रहे हैं। यह सुनकर संघ में सनसनी छा गई और आप का निकला । ऐसे विजयी पुरुषों का जैन समाज से हो जाना बहुत असह्य था । कथन भी सत्य यकायक विदा इसी गच्छ में देवगुप्तसूरि के एक शिष्य देवचन्द्र थे । आप को सरस्वती सिद्ध थी अतः आपने अनेकानेक वादियों को शास्त्रार्थ में पराजय कर प्रतिबोध दिया । आप एक बार महाराष्ट्र, तैलंग और करणाटक प्रान्तकी ओर पधारे । उधर जापली नामक नगर में एक धर्मरूचि नामक वादी रहता था जो सप्त छत्रधारी था । उससे शास्त्रार्थ कर देवचंद्रने सातों छत्र छीन लिये | आपने दीगम्बर धर्मकीर्ति आदि अनेकानेक वादियों को भी परास्त किया था । 'करणाटक प्रान्तमें धन कुबेर महादेव नामक साहूकार रहता था जिसने देवचन्द्र मुनि की खूब सेवा और भक्ति की । इसके आग्रह से आपने चन्द्रप्रभ नामक काव्य रचा जिसमें २१ सर्ग थे । दूसरे स्थिरचन्द्र नामक मुनि भी काव्यकलाविज्ञ तथा प्रमाणशास्त्र प्रवीण थे । और इनका शिष्य हरिश्चन्द्र भी इतना गुणि था कि गच्छाधिपतिने उसको उपाध्याय की पदवी दी थी । कच्छ प्रान्त का एक राजा जो अपनी कन्याओं को जन्मते ही मार डालता था ।
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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