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________________ તપશ્ચર્યા १२. तपसा प्राप्यते सत्त्वं सत्त्वात् संप्राप्यते मनः । १३. १४. मनला प्राप्यते त्वात्मा ह्यात्मापत्त्या निवर्त्तति - यजुर्वेदीय मैत्रायणी आरण्यक ४ / ३ — १७. तप द्वारा सत्त्व (ज्ञान) प्रप्त होता है, सत्त्व से मन वश में आता है, मन वश में आने से आत्मा की प्राप्ति होती है, और आत्मा की प्राप्ति हो जाने पर संसार से छुटकारा मिल जाता है। विद्यया तपसा चिन्तया चोपलभते ब्रह्म । यद्वि परं तपस्तद् दुर्घर्षम् तद् दुराधर्षम् । - य० मै० आ० ४/४ आध्यात्मिक विद्या से, तप और आत्मचिन्तन से ब्रह्म की उपलब्धि होती है । अहिंसा सत्य वचन मानृशंस्यं दमो घृणा । एतत्तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम् । - महा० शान्तिपर्व १८३/१८ १५. देव द्विज गुरु प्राज्ञ - पूजनं शीचम्रजवम् । किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, सत्य बोलना, क्रूरता को त्याग देना मन और इन्द्रियों को संयम से रखना तथा सबके प्रति दया भाव रखना, इन्हीं को धीर (ज्ञानी) पुरुषों ने तप माना है। केवल शरीर को सुखाना ही तप नहीं है । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १४ ॥ देवता, ब्राह्मण, गुरु एवं ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता सरलता, ब्रह्मचर्यं और अहिंसा - ये शारीरिक तप है। १६. अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रिय हितं च यत् । પ્રકરણ ૬ स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥ १५ ॥ उद्देग (अशान्ति) न करने वाला, प्रिय, हितकारी यखार्थ सत्य भाषण और स्वाध्याय का अभ्यास - ये सव वाणी के तप कहे जाते हैं । मनःप्रसादः सौम्यत्त्वं मीनामात्मविनिग्रहः । भावसंशुद्धिरित्येतत् तपो मानसमुच्यते ॥ १६ ॥ - भगवद्गीता ११ मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन, आत्म-निग्रह तथा शुद्ध भावना ये सब मानस तप कहे जाते है । ૫૦૦
SR No.023263
Book TitleTapascharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanmuni
PublisherAjaramar Active Assort
Publication Year2014
Total Pages626
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size18 MB
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