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________________ તપશ્ચર્યા ५४२७ -६ ५. तपो हि स्वाध्यायः। - तैत्तिरीयआरण्यक २/१४ स्वाध्याय स्वयं एक तप है। ६. स तपोऽतप्यत, स तपस्तप्त्वा इदं सर्वम् असृजत् । - तैत्तिरीय आरण्यक ८/६ उस (ब्रह्म) ने तप किया और तप करके इस सब की रचना की। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व। - तैत्तिरीय आरण्यक ९/२ तप के द्वारा ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप को जानिए । ८. तपो ब्रह्मेति । - तैत्तिरीय आरण्यक ९/२ तप ही ब्रह्म है। ९. ऋतंतपःस सत्यंतपः, श्रृंतंतपः, शान्तं तपो, दानंतपः । - तैत्तिरीयआरण्यक नारायणोपनिषद् १०।८ ऋत (मन का सत्य संकल्प) तप है। सत्य (वाणी से सत्य भाषण) तप है । श्रुत (शास्त्र श्रवण) तप है। शान्ति (ऐन्द्रियिक विपयों से विरक्ति) तप है। दान तप है। १०. तपो नानशनात् परम् । यद्वि परं तपस्तद् दुर्घर्षम् तद् दुराधर्षम् । - तैत्तिरीय आरण्यक १०/६२ अनशन से बढ़कर कोई तप नहीं है। साधारण साधक के लिए यह परम तप दुर्धर्प है, दुराधर्प है, अर्थात् सहन करना बड़ा ही कठिन है। ११. नाऽतपस्कस्याऽत्मज्ञानेऽधिगमः कर्मशुद्धिर्वा । - मैत्रायणी आरण्यक ४/३ जो तपस्वी नहीं है, उसका ध्यान आत्मा में नहीं जमता और इसलिए उसकी शुद्धि भी नहीं होती।
SR No.023263
Book TitleTapascharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanmuni
PublisherAjaramar Active Assort
Publication Year2014
Total Pages626
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size18 MB
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