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________________ सिरि भूवलय हिरियत्वविवु मूरु सरमणि मालेय। अरहंत हारद रत्नं । सरपणियंते मूरर मूरु ओम्बत्तु । परिपूर्ण मूरारु मूरु ।। यशदंकवदरोळगोन्दु कूडलु । वशदा सोन्नेगे ब्राह्मी । वेसरिन लिपियंक देवनागरी येम्बा ।। यशवदेय ऋगवेददंक ॥ धर्मवदिन्तु समन्वयवागलु । निर्मलद्वैत शास्त्र ॥ शर्मरिगामूरु अनुपूर्विगे बंदु। धर्मदैक्यवनु साधिपु ।। मनदर्थियिन्दा अनेकांतजैनरु । जिननिरूपितवह शास्त्र ॥ दनुभयद्वैत कथम्चिदद्वैतद । घनसिध्दयात्म भूवलय ।। ६-८० १० कुमुदेन्दु के धार्मिक दृष्टि के लिए इससे भी अधिक निर्दर्शन की आवश्यकता नहीं है। कवि एक बेदंड में तर्क व्याकरणर छंदस्सु निघन्टु अलंकार काव्यधरर, नाटका गर गणितज्योतिष्कर, सकल शास्त्रिगळ, विद्यादिसंपन्नर, नदियंते महा अनुभावर, अदरलि लोकत्रयाग्रर, गारवद विरोधर, सकल महिमामंडलाचार्यर, तार्किक चक्रवर्ति सद्विद्या चतुर्मुखर षटतर्क विनोदर, नैयायिकव वादिपर, अदरलि वैशेषिकवं, भाष्यप्रभाकररु, मीमांस विद्याधररु, सामुद्रिक भूवलयरु । ऐसा कहते हुए अपना और अपने विद्वत के विषय में कहते हैं। सकल ज्ञान कोविद (पारंगत) आपको समता धर्म वादी कह सकते हैं। कुमुदेन्दु अपने जैन मत सूत्र के अभिमान में अन्य मतों को और अभिप्रायों को नकारते नहीं हैं । अन्य मतों को बहुकाल के ज्ञानियों की संपत्ति है, मान कर उनमें एक समानता दिखाकर इनमें से जगत के लिए अगाध प्रमाण में उपकारों का प्रयोग कर अपने तत्व सिध्दांत का निरूपण करते हैं। आगे या पीछे जब भी हो हमेशा के लिए शाश्वत तथ्यों को आणी मुत्तु (मोतियों) के भाँति अपने काव्य में पिरोया है। अब यह विश्व काव्य उपलव्ध कन्नड ग्रंथों में अत्यंत प्राचीन है और अभी तक उपलब्ध भारतीय साहित्यों में सबसे बडा है कह सकते हैं। 87
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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