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________________ (सिरिं भूवलय कुमुदेंद ने इस महाग्रंथ को लिखने में जितना प्रयास किया है उतना ही प्रयास करके श्री मोहनजी ने इस ग्रंथ का प्रकाशन किया है । आगे और अनेक संस्करणों को प्रकाशित करने की अभिलाषा श्री मोहनजी को है । साथ में एक प्रतिष्ठान भी बनाया है। आगे क्या करना हैं? इस ग्रंथ के ५९ अध्यायों को ५९ विद्वानों में वितरण कर उसका मूल तात्पर्य क्या है? सूक्षम अर्थ क्या है? ध्वनि क्या है ? शास्त्र सिद्धांत क्या है ? समन्वय क्या है? इन सब को स्पष्ट करना तनशुद्धि के लिये प्राणवायु अर्थात चौदह पूर्व' ऐसी कल्पना जैनों में है। इसमें दृष्टिवायु का अर्थ प्राकृत का केवल दिट्टवायु' ही बचा हुआ है । यही दिगंबर जैन पद्धति का मूल है । इस पर आधारित षड्खंडागम ही भूतबलि को कहने वाला ग्रंथ है । इसको धवळ' नाम की वीरसेन का टीकाग्रंथ है । इस पर आधारित यह सिरिभूवलय ग्रंथ है । यह द्वैत, अद्वैत-अनेकांत को एकत्र कर, समीकृत प्राणवायु को ढूंढने का योगसिद्धि है । इसमें जिस किसीको आसक्ति सिद्धि, प्रवेश, प्रौढता(गहनता) है उसका शुभ हो ऐसा कहते हुए वाय.के. मोहनजी को अभिनव कुमुदेंदु' नाम से हम इस दिन सम्मानित करते है । 40 - -
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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