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________________ सिरि भूवलय) यह कैसे इस रसवाद में दिखाई देता है कि इसमें शास्त्र विचार, भूगोल विचार, रसायनशास्त्र विचार, जहाज विचार, विज्ञान विचार, जलशास्त्र विचार, और दांपत्य विचार भी आते हैं। परंतु कुमुदेंदु कवि कहते है कि समवसरण काल में दिव्यध्वनि का अनुसरण करते हुए मैंने इस धवल ग्रंथ को लिखा है। जैनशास्त्र के षड्खंडागम में आने वाला प्रक्रियायें क्या है? कोई भी भौतिक वस्तु हो उसका एक आध्यात्मिक स्थान हैं। अध्यात्मिक स्थान को छोडकर कोई तात्पर्य नहीं है । सिरिभूवलय में तीन रत्नत्रय विषय जैसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र यह तीनों रत्न मानव का मुक्ति मार्ग है । यह जैन होने के कारण तीर्थंकर का मार्ग अपनाने के कारण ग्रंथ के आरंभ में ही आठवें तीर्थंकर के विषय में विवरण प्राप्त होता है। यहां इस रत्नत्रय जैसे रस-गंध-लौह मिलने पर रसवादवतिशय वैद्यभूवलय को' रत्नत्रय का भूयॊषध है' ऐसा कहते है । जलपद्म सात, स्थान पद्म सोलह, पर्वत पद्म सात' हैं ऐसा रसवैद्य कहते है । वह आल्केमि' के विषय में कह रहें हैं ऐसा लगता है । परंतु उनका लिखावट देखकर : भव्यजीवरन् जिनरागि माडिप रसवैद्यविदु' ऐसा कहते है । आध्यात्मिक और भौतिक रूप से दर्शन देने के तत्व को यहां स्पष्ट किया है । यहां इस प्रकार से विवरण देते है कि जलपद्मनाभी, करपद्म-हृदय, स्थलपद्म-शीश है। यह सामान्य लोहे को सोने में परिवर्तित करने की रसविद्या नहीं है । काया को वज्रकाया के रूप में परिवर्तित करने की रसविद्या है । इसका अर्थ सामान्य मानव को जिन बनाना है । इन तीन रसों को पीस कर अर्थात शरीर के तीन स्थानों की नाडियों को योग से साधित कर प्राप्त होने वाला पादरस (पारा नहीं) को अरहंत के पदरस को-वेद में प्राप्त तद्विष्णोः परमपदं' जैसे पवित्र पाद को- आठ परत चढाकर कर ध्यानाग्नि से उज्वल बनाने का आध्यात्मिक साधन का रसवाद हैं । इसे ही कवि 'भव्यजीवरनु जिनरागि माडिप रसवैद्यविदु', ऐसा कहते है । __ अंकों से सांगत्य को समझना जितना कठिन है उतना ही कठिन सांगत्य से तात्पर्य को समझना भी । इस प्रकार अर्थगर्भित भावगर्भित, ध्वनि से समाहित इस महाकृति के प्रथम संस्करण को हमारे मित्र ने सत्यकल्प भाव से प्रकटित किया है । यह हमारे वाय. के. मोहनजी और उनके मित्रों का अद्भुत कार्य है। 39
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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