SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिरि भूवलय भगवान की दो पुत्रियों ने पिता से आग्रह किया कि उन्हें भी कुछ विद्या सिखाएं । भगवान ने उनसे पूछा कि वे क्या विद्याएं सीखना चाहती हैं। उनकी दोनों पुत्रियों ब्राह्मी और सौन्दरी ने कहा कि उन्हें अविनश्वर विद्या सिखलाए। तब भगवान ने उत्तर दिया कि मैं तुम दोनों को अक्षर (अविनश्वर) विद्या ही सिखाता हूँ। ब्राह्मी उनकी गोद में बांयी ओर बैठी थी उससे कहा कि अपना हाथ आगे निकालो ब्राह्मी ने अपना बांया हाथ आगे किया तब भगवान ने अपनी अमृतांगुलि से याने अंगूठे से (शिशु तीर्थंकर के अंगूठे में इंद्र अमृत रख जाता है जिससे वे चूसते ही रहते हैं तथा प्रायः सभी छोटे बच्चे अंगूठा चूसते हैं इसीलिए उसे अमृतांगुलि कहा जाता है) ब्राह्मी के बाएं हाथ पर भगवान ने चौंसठ अक्षर लिख कर भाषाओं के उद्गम रूप अक्षर विद्या को सिखाया । ब्राह्मी के नाम पर ही उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि पडा । ब्राह्मी लिपि सबसे प्राचीन है ऋषभदेव द्वारा बतलाए गए उन चौंसठ अक्षरों से संसार के सभी भाषाओं का लिखना पढना हो जाता है। भगवान ने दाहिने के हाथ के अंगूठे से ब्राह्मी के बाएं हाथ पर अक्षर लिख कर बताए थे अतः उनका लेखन क्रम बांयी ओर से दाहिने ओर हुआ । सौंन्दरी दांयी ओर गोद में बैठी थी इस कारण से भगवान ने अपने बाएं हाथ के अंगूठे से दाहिने हाथ पर १ २ ३ ४ ५ आदि अंक लिख कर उसको समस्त संकलन (जोड) विकलन ( बाकी) गुणा भाग आदि गणित विद्या सिखाई । भगवान के बाएं हाथ का अंगूठा दाहिनी ओर से बांयी ओर चला इस कारण अंक क्रम लिखने में अक्षर क्रम से उल्टा लिखा गया । इसी कारण अंकों का लिखना इकाई, दहाई, सैकडा आदि के रूप में बांयी ओर प्रचलित हुआ वही पद्धति आज तक प्रचलित है । भूवलय सिद्धांत ग्रंथ का उक्त समाधान बहुत सुन्दर और बहुत ठीक बैठता है । अंकानां वामतो गतिः याने अंकों की चाल बांयी ओर होती है । ऐसी पद्धति क्यों प्रचलित हुई अंक बाएं ओर तथा अक्षर दाएं ओर क्यों लिखे जाते हैं इन सब प्रश्नों का युक्तियुक्त उत्तर भूवलय सिद्धांत ग्रंथ के उक्त कथन से बिल्कुल ठीक व संतोषजनक मिलता है । 421
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy