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________________ (सिरि भूवलय) के बगल में बिन्द का चिन्ह रखा गया है । उन्हें उनके पिछले पष्ठ में दिखाए गए जैसे ऊपर से नीचे अध्याय के आखिरी पद्य तक एक-एक अक्षर को मिला कर पढ कर, फिर उसके बगल के अक्षर से ऊपर पहले पद्य तक, पुनः बिन्दु चिन्ह वाले अक्षर से नीचे की ओर, अंत के पद्य में पुनः ऊपर की ओर नाग बंध में पढते जाए तो एक अलग संस्कृत साहित्ये का आविर्भाव होता है। १६. ऊपर की भाँति ही २०वें अध्याय से ग्रंथ के आखिर तक पहले कहे गए प्राकृत-संस्कृत अश्व गति साहित्य के साथ १८ अलग अलग पंक्तियों में कन्नड और संस्कृत साहित्य जोडी नागर बंध में नए रूप में सजित होता है। उदाहरण . पहला अक्षर .. ऐघणघाईमहणा तिहुवण ..' ॥ प्राकृत २रा अक्षर दीपतितेजवनातमचकरदोळ ( नीचे पुनः मिलाकर अनेक अध्यायों तक।। कन्नड ३, ५, ९, ११, १४, १५, और आखिर के अक्षर (नीचे की ओर) (एक ही अध्याय। कन्नड ४, ६, १०, १२, १८, २२, अक्षर अध्याय के अंत से ऊपर की ओर ॥ कन्नड १७. इस प्रकार अब मुद्रित किये गए मंगल प्राभृत के ३३ अध्यायों में भी, आगे प्रकट होने वाले २६ अध्यायों में भी इसी प्रकार आने वाले एकाक्षर प्रवाह साहित्य को ही कमानुसार पक्तियों में लिख कर पुनः-पुनः ढूंढ कर पढा जाए तो अक्षरों के लिए लाख के बराबर कभी न खत्म होने वाले अंतर साहित्य प्रवाह सागर के बराबर सृजित होगा । १८. आगे ८२सी पृष्ठ में ७ भाषा की उत्पत्ति होने वाले २रे खंड के एक अध्याय को उदाहरण रूप में दिया गया है। उसमें हमेशा की तरह ललित रूप से आने वाले कन्नड सांगत्य पद्यों में पहला अक्षर नीचे की ओर :- प्राकृत:- सुदाणाणससाअवरणियं ॥ 136
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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