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________________ कोठियाँ थीं तथा जो समकालीन राजा अनंगपाल तोमर का परम विश्वस्त अर्थमन्त्री भी था, उसने दिल्ली में शास्त्र-सम्मत एक विशाल, उत्तुंग एवं कलापूर्ण नाभेय (ऋषभदेव)-मन्दिर का निर्माण कराया था। उसके मुख्य प्रवेश-द्वार के सम्मुख एक मानस्तम्भ भी बनवाया था। कुतुबुद्दीन ऐबक ने उन्हें तोड़-फोड़ कर कुतुबमीनार एवं कुतुबुल-इस्लाम नामकी विशाल मस्जिद का निर्माण कराया था (विशेष के लिये इसी ग्रन्थ की प्रस्तावना देखिये)। वामंगे खरु रइइ (वामांग की युवराज पार्श्व जब यवनराज के साथ युद्ध करने के लिये प्रस्थान करने लगे ओर गदहा रेंगने लगा)-3/16/13 उस समय क्या-क्या शुभ- शकुन हुए, कवि ने उनकी चर्चा की है। कवि के अनुसार उस समय बायीं ओर खर (गदहे) रेंकने लगे, तो बायीं ओर ही शृंगाली शिव-शिव रटने लगी और क्षीर-वृक्ष पर बैठा हुआ कौवा काँव-काँव करने लगा। जउणहो णिव पंचवीर-4/15/6 यवनराजा के पाँच वीर योद्धा, जो यवनराज की ओर से रविकीर्ति एवं युवराज पार्श्व के साथ लड़े थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- (1) कल्याणमल्ल, (2) अभिमान-भंग, (3) विजयपाल, (4) गुज्जर एवं (5) तडक्क। णवहं वि सिरि पाडिय यवनराज के नौ पुत्रों के सिरों को बीच से चीर डाला। दोहंडेहिँ-4/16/16 यवनराज के कल्याणमल्ल आदि पाँचों वीर योद्धाओं को मार डालने के बाद रविकीर्ति ने यवनराज के युद्धवीर समझे जाने वाले नौ पुत्रों को भी मारकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। सिरिणिवासु-4/17/7 श्रीनिवास, यवनराज का प्रधान सेनापति। मलयणाहु (मलयनाथ)-4/17/6 यवनराज का एक दुर्दम योद्धा। पोमणाहु (पदमनाथ)-4/20/8 यवनराज का एक दुर्दम योद्धा। विभाड (विभ्रावट)-4/21/17 यवनराज का एक दुर्जेय योद्धा। दुट्ठ कम्मट्ठ (दुष्ट अष्ट कर्म)-10/10/3 जैन सिद्धान्त के अनुसार कर्म आठ प्रकार के हैं— ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र एवं अन्तराय। इनके अनेक भेद-प्रभेद होते हैं। ये सभी कर्म दुखदायी एवं जीव को संसार में अनन्त काल तक भटकाते रहने के लिये मूल कारण हैं। तियरण (त्रिकरण)-10/17/7 मन, वचन एवं काय अथवा कृत, कारित एवं अनुमोदना। इनसे हिंसादि पंच पापों का त्याग ही श्रावक-धर्म का मूल कहा गया है। पंच-समिदि (पंच-समिति)-10/17/1. ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण एवं व्युत्सर्ग ये पाँच प्रकार की समितियाँ कही गई हैं। निर्दोष मुनि-चर्या के लिये इनका पालन अनिवार्य है। गुत्तीउ त्तिण्णि आश्रव के कारणभूत मन, वचन एवं काय की अशुभ प्रवृत्तियों की रोक ही (तीन गुप्तियाँ)-10/17/1 गुप्ति कहलाती है। इसप्रकार मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति इन तीन प्रकार की गुप्तियों का पालन मुनि-चर्या के लिये अनिवार्य अंग माना गया है। अनगार धर्मामृत (4/154) के अनुसार ये गुप्तियाँ रत्नत्रय की तथा उसके धारण करने वाले की पापों से रक्षा करती हैं, अतः उन्हें गुप्ति कहा गया है। पासणाहचरिउ :: 277
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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