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________________ 10/18 Necessity of right belief in rare human life. जइविहु विरयहु तीरइ ण धम्मु जिण भणिउ एउ इक्कु वि मुहुत्तु सो विहु ण भमइ चिरु भवसमुद्दि किं पुणु तवसिरि-रामा रवंतु अइरेण जीउ णिहणइ ण कम्म जिह अइरावउ करि वारणेसु जिह विणया तणुरुहु णहयरेसु जिह अमरमहीहरु महिहरेसु जिह हरियंदण तरु महिरुहेसु जिह णिम्मलयर रयणेसु वज्जु तो वि सदसणु कीरइ सुरम्मु।। जो करइ धम्मु विणएण जुत्तु।। अइ दुक्ख लक्ख जलयर रउद्दि।। सदसण-णाण-चरितवंतु।। वसुविहु वारिय णिव्वाण सम्मु।। जिह कुवलय-बंधउ गहयणेसु।। जह छक्खंडाहिउ णरवरेसु।। जह जिय रइवइ जिणु सुरवरेसु।। जिह गयमल सयदलु जलरुहेसु ।। तिह सारउ मणुअत्तणु मणोज्जु ।। ___10 घत्ता- जिह अवियल णिय करयल गलिउ रयणु पुणु दुल्लहु । असुहायरे भवसायरे तिह णरजम्मु वि बल्लहु ।। 183 ।। 10/18 दुर्लभ मनुष्य-जन्म में श्रदान करना आवश्यक भले ही सुरम्य धर्म का पालन शक्य न हो, फिर भी उसमें श्रद्धान तो अवश्य ही करना चाहिए। जो व्यक्ति विनयशील रहकर जिनभाषित धर्म का एक मूहूर्त मात्र भी पालन करता है उसे अतिशय दुखरूपी लाखों जलचरों से रौद्र भव-सागर में चिरकाल तक नहीं भटकना पड़ता। जो तपश्री रूपी सुन्दर रमणी के साथ रमण करता है और जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय से युक्त है, वह जीव क्या निर्वाण-सुख के अवरोधक अष्ट-विध कर्मों का तत्काल क्षय नहीं करेगा? जिस प्रकार करिवरों में ऐरावत, ग्रहों में कुवलय-बन्धु (चन्द्रमा), नभचर-पक्षियों में विनयापुत्र-गरुड़ (विणयातणुरुह) नरवरों में चक्रवर्ती, महीधरों (पर्वतों) में अमर महीधर (सुमेरु पर्वत) देवों में कामविजेता जिनेन्द्र, महीरुहों (वृक्षों) में हरिचन्दन (कल्पवृक्ष), कमल-पुष्पों में मल रहित शतदल कमल, निर्मलतर रत्नों में वज्ररत्न (हीरा) सारभूत माने जाते हैं, उसी प्रकार हे मनोज्ञ, चारों गतियों में यह मनुष्य-जन्म सारभूत है। घत्ता- जिस प्रकार अपने अविचल हाथों से समुद्र में गिरे हुए रत्न को पाना दुर्लभ है, उसी प्रकार अशुभ-कर्मों की रवानि भवसागर में यह प्रशस्त मनुष्य-जन्म प्राप्त करना भी दुर्लभ है।। 183 ।। 214:: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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