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________________ 5 10 10/17 Preachings regarding asceticism. हँ पंच-समिदि-गुत्तीउ- तिण्णि विसएसु ण किज्जइ जित्थु राउ भोण सुमरिज्जइ कयावि ति तावज्जइ तवेहिँ हिमाणु माया विरोहु जहिँ णाहंकारु ण गंथ-संगु हिँ तियरणेहिं णउ जीव घाउ हिँ सकूँ घिप्पइ णदत्तदाणु हँ मण वय कायहिँ घत्थ-वाहि जहिँ छट्ठट्ठम दस वारसेहिँ सोसिज्जइ भंगुरुणियसरीरु जहिँ उवसम-सिरि-रंजियउ चित्तु पालिज्जहिँ मुंचहिँ दोसु दुण्णि ।। नियमिज्जइ जहिँ णियमेहिँ भाउ ।। विणयवित्ति कीरइ सयावि । । जणु थुणियइ जय-जय रखेहिँ । । कोण लोण पाणिदोहु ।। हँ उ णु ण सीलभंगु । । किज्जइ ण च विज्जइ अलिउ वाउ ।। जहँ णारीयणु माया - समाणु ।। कामिज्जइ कम्मक्खउ समाहि ।। जहिच्छ आहरहिँ दूरुज्झिय रसेहिँ । । तिरयण-भूसण भूसियउ धीरु ।। जहिँ सरिसउ दीसउ सत्तु - मित्तु ।। घत्ता — जहिँ पविमलु सुह केवलु उप्पज्जइ वरसोक्खहो । दुक्खक्खउ कम्मक्खर सो जि धम्मु पहु मोक्खहो ।। 182 ।। 10/17 श्रामण्य-धर्म (और भी कि ) जहाँ पाँच समितियाँ एवं तीन गुप्तियाँ पाली जाती हैं, जहाँ दो दोष- ( राग-द्वेष) छोड़े जाते हैं, जहाँ विषयों के प्रति राग नहीं किया जाता, जहाँ नियमों द्वारा भावों को बाँधा जाता है, जहाँ (अतीतकालीन ) भोगों का कभी भी स्मरण नही किया जाता, जहाँ सदैव ही विनयवृत्ति की जाती है, जहाँ निरन्तर ही अपने शरीर को तपों द्वारा तपाया जाता है, जहाँ जय-जयकारों द्वारा जिनवर की स्तुति की जाती है, जहाँ न तो अभिमान है, न माया और न विरोध ही, जहाँ क्रोध, लोभ एवं प्राणि-द्रोह नहीं है, जहाँ न तो अहंकार है और न किसी प्रकार का संगपरिग्रह, जहाँ न तो पैशुन्य ( चुगल खोरी ) है और न शील का भंग । करण (मन, वचन, काय, अथवा कृत, कारित एवं अनुमोदना) से किसी भी जीव का घात नहीं, किया जाता, जहाँ असत्य वचन नहीं बोला जाता, जहाँ बिना दी हुई कोई वस्तु ग्रहण नहीं की जाती, जहाँ नारी को माता को समान माना जाता है, जहाँ मन, वचन एवं काय से भव-व्याधि (अथवा परिग्रह की वृत्ति) को ध्वस्त किया जाता है, जहाँ कर्म-क्षय एवं सुसमाधि की कामना की जाती है, जहाँ छठे, आठवें, दसवें एवं बारहवें तथा यथेच्छ आहारों से अथवा रस-त्याग से अपने क्षणभंगुर शरीर का शोषण किया जाता हो, जहाँ धीर-जन त्रिरत्नों रूपी भूषण से भूषित रहता है, जहाँ उपशम रूपी लक्ष्मी से चित्त रंजित रहता है, जहाँ शत्रु एवं मित्र समान दिखाई देते हैं घत्ता- जिससे भव-दुखों का क्षय एवं कर्म क्षय के कारण शुभ केवलज्ञान उत्पन्न होता है, वही उत्तम सुख देने वाला मोक्ष का पथ-धर्म है ।। 182 ।। पासणाहचरिउ :: 213
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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