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________________ 6/3 Ravikirti also releases the arrogant Yavanrāja on the humble request of his (enemy's) counsellors. रविकित्ति णरिंद पासणाहु णीयउ णियहरु परियण सणाहु ।। भुंजाविउ भत्तिए छउरसेहिँ उक्कोविय मयरद्धय सरेहिँ।। परिहाविउ णिम्मल णिवसणेहिँ भूसिउ कणयमय विहूसणेहँ।। एत्यंतरे जउण-णरेसरासु अणवरय समरे मेल्लिय सरासु ।। मंतिहि विण्णत्तउ भाणुकित्ति पाविय ससंक संकास कित्ति।। सविणय वयणहिँ भो पुहविपाल वइरियण विहट्टण पलयकाल।। जहँ तुंगत्तणु धरणीसराहँ जह तुरयहँ चरणु मुणीसराहँ।। रहवरहँ णेमि मउ मयगलाहँ चलणयण जुअलु मुहसयदलाहँ ।। तह णरहो माणु भंडणउ होइ एरिसउ देव वज्जरइ जोइ।। तं णिरसिउ पइँ जउणाहिवासु बंधावेवि पासहो सिरिवरासु।। एव्वहिँ मेल्लिज्जउ मुएवि कोउ णरपुंगव वइरत्तणेण होउ।। तं सुणिवि वयणु कारुण्णभाउ जायउ रविकित्तिहि पहयपाउ।। घत्ता-मुक्क-संकर-कराबेवि पयजुए णावेविच्छुडु रविकित्ति णरिंदें। ता गउ पणवेवि पासहो रविसंकासहो सणयरु सहुँ णरविंदें।। 98 ।। 6/3 शत्रु-मन्त्रियों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर रविकीर्ति यवनराज को भी बन्धन-मुक्त कर देता है राजा रविकीर्ति कुमार पार्श्वनाथ को उनके परिजनों के साथ अपने घर ले गया और भक्तिपूर्वक कामदेव के बाणों को भी उत्तेजित कर देने वाले षडरसों वाला भोजन कराया, अमूल्य निर्मल वस्त्रों को पहिनाया और स्वर्णनिर्मित आभूषणों से विभूषित किया। इसी बीच, समर-भूमि में अनवरत बाण-वर्षा करने वाले यवनराज के मन्त्रियों ने चन्द्रतुल्य (धवल) कीर्ति के धारक भानुकीर्ति (रविकीर्ति) के समक्ष आकर विनम्र शब्दों में निवेदन किया -शत्रुजनों के विध्वस्त करने के लिये प्रलयकाल के सामान हे पृथिवीपाल, जिस प्रकार राजाओं एवं पर्वतों की श्रेष्ठता उनके तुंगत्व (महानता) से, घोड़ों की श्रेष्ठता उनकी तीव्रगति से, मुनीश्वरों की शोभा तथा श्रेष्ठता उनके चरित्र (कठोर चर्या-पालन) से, रथों की श्रेष्ठता उनकी नेमि से, गजों की श्रेष्ठता उनके मदजल से और जिस प्रकार कमल-मुख की शोभा उसके चंचल नेत्र-युगल से मानी जाती है, उसी प्रकार हे देव, मान-दर्प मनुष्य का मण्डन माना गया है, ऐसा योगियों ने कहा है। __ आपने यवनराज को, श्री-शोभा के निवास-स्थल के समान कुमार पार्श्व द्वारा बँधवाकर उसके मान का मर्दन करा ही दिया है। अतः अब हे नर पुंगव, आप अपना क्रोध शान्त कर शत्रुता का भाव भूलकर उसे बन्धन मुक्त करा दीजिये। शत्रु-मन्त्रियों के वचन सुनकर रविकीर्ति के मन का पाप धुल गया और उसका कारुण्य-भाव जग गयाघत्ता— अतः उस (रविकीर्ति) ने शीघ्र ही यवनराज को अपने पद-युगल में झुकवाकर सांकल से बन्धन मुक्त कराकर छुड़वा दिया। वह यवनराज सूर्य के समान तेजवाले कुमार पार्श्व को भी प्रणाम कर अपने सुभटों के साथ अपने नगर को वापिस लौट गया। (98) पासणाहचरिउ :: 115
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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