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________________ प्राच्य भारतीय इतिहास के जैन एवं जैनेतर प्राच्य एवं पाश्चात्य अध्येताओं ने 20वीं सदी के प्रारम्भ से ही पार्श्व के जीवनचरित से सम्बन्धित सामग्री की खोजों के लिए सघन प्रयत्न किए हैं तथा ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य, प्राचीन जैन एवं जैनेतर साहित्य तथा लोकानुश्रुतियों के प्रमाणों के आधार पर उनके अस्तित्व, काल, जीवनपरिचय, व्यक्तित्व एवं कृतित्व के सूत्र संयोजित करने के सराहनीय प्रयत्न किए हैं। प्राच्यविद्याविद् डॉ. हर्मन याकोवी के अन्वेषण डॉ. हर्मन याकोबी ने सम्भवतः सर्वप्रथम विविध साक्ष्यों के आधार पर पार्श्वनाथ का साधनाकाल एवं जीवन सम्बन्धी तथ्यों की खोज का प्रयत्न किया। उन्होंने अपने विशिष्ट अध्ययन के आधार पर यह घोषित किया कि बौद्वागमों में जिस णिग्गंठ-सम्प्रदाय की चर्चा है, वह पार्श्वनाथ की ही परम्परा थी। बौद्धों के मज्झिमनिकाय के 'महासिंहनादसुत्त' में बताया गया है कि गौतम बुद्ध ने जब दीक्षा ली, तो उन्हें कठोर तपस्या करनी पड़ी। उनके अनुसार बुद्ध की तपस्या की विशेषता थी— कठोर तपस्या, रूक्षता, जुगुप्सा एवं प्रविविक्तता'। यह विशिष्टता निश्चय ही एक पाश्र्वानुयायी की कठोर तपस्या थी'। इसका समर्थन आचार्य देवसेन (सन् 933 ई.) कृत 'दर्शनसार'' से भी होता है। उसके अनुसार गौतम बुद्ध ने एक पार्खापत्य मुनि-पिहिताश्रव के पास दीक्षा ग्रहण की थी और वह बुद्धकीर्ति के नाम से प्रसिद्ध हुआ। किन्तु इतनी कठोर तपस्या से ऊबकर तथा पथभ्रष्ट होकर उसने रक्ताम्बर धारण कर लिये थे। यथा सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलास-णयरत्थे। पिहियासवस्स सिस्सो महासुदो बुद्धकित्ति-मुणी।। तिमिपरणासणेहि अहिमयं पव्वज्जाओ परिभट्टो। रत्तंवरं धरित्ता पविठ्ठयं तेण एयंत।। -(दर्शनसार, माथा 6-7) अर्थात् श्री पार्श्वनाथ के तीर्थ-काल में सरयू नदी के तटवर्ती पलाशनगर में (आचार्य-मुनि) पिहितास्रव का एक शिष्य रहता था, जिसका नाम बुद्धकीर्ति-मुनि था, जो महाश्रुति अर्थात् अनेक आगम-शास्त्रों का ज्ञाता था किन्तु मत्स्य-भक्षी होने के कारण वह अपनी प्रव्रज्या से परिभ्रष्ट हो गया और उसने रक्ताम्बर धारण कर एकान्तमत (अथवा मध्यम-मार्ग) की स्थापना की। डॉ. याकोबी की खोज के अनुसार पार्श्व ने तीर्थंकर महावीर के जन्म के लगभग 350 वर्ष पूर्व वाराणसी के एक राजा के यहाँ जन्म लिया। 30 वर्ष की आयु तक वे अपने माता-पिता के साथ परिवार में रहे, फिर सांसारिक भोगों की असारता का अनुभव कर दीक्षा ले ली और कठोर तपस्या की। इस प्रकार उनकी आयु 70 वर्ष की हो गई। कुल मिलाकर लगभग 100 वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर उन्होंने सम्मेदशिखर (वर्तमान झारखण्ड में स्थित) से परिनिर्वाण प्राप्त किया। इस प्रकार याकोबी की खोज के मुख्य निष्कर्ष निम्न प्रकार रहे(1) तीर्थंकर पार्श्व ऐतिहासिक महापुरुष थे। तथा, (2) तीर्थंकर महावीर के पूर्व एक ऐसा सम्प्रदाय प्रचलित था, जो “निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय के रूप में प्रसिद्ध था और जिसके नायक पार्श्व-तीर्थंकर थे। डॉ. याकोबी के उक्त तथ्यों ने परवर्ती विद्वानों के लिये पार्श्व विषयक ऐतिहासिक सामग्री की खोज के लिए निश्चय ही पर्याप्त प्रेरणाएँ देकर उन्हें मार्गदर्शन दिया। 1. 2. S.B.E. Series, Vol. 45, Introduction, P.31-35. जैन हितैषी 3/5-6 (मई-जून 1917) में प्रकाशित पं. नाथूराम प्रेमी का निबन्ध देखिए। 10:: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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