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________________ तुहु पाय-पउम सेविय ण जेहिं अप्पउ विमइहिँ वंचियउ तेहिाँ। तुहुँ तणउ सहलु पर णारि-जम्मु परिहरियामरिस-कसाय छम्मु।। तुहु दंसणि दूरोसरहिं पाव सहसत्ति होति विमलयर-भाव।। तुहुँ सुह-महिरुहु संजणण-छोणि णीसेस कला-विण्णाण-जोणि।। तुहुँ पर तिहुअण णारियण-रयण पइँ परमुहेण जिउ लच्छि सयण तुह गब्मवासि तित्थयरु देउ वित्थरिय सयल भुवणयल-भेउ णिम्मल-ति-णाणी अमलिय-मरट्ट मिच्छत्त-चणय-चूरण-घरट्ट।। खयरामर-णर-धरणिंद-सामि होसइ परमेसरु मोक्खगामि।। घत्ता- इय थोत्तु कुणंतउ हरिसु जणंतउ जंपतउ सेवावयणु। अंजलि जोडंतउ पयहिँ पडतउ णच्चंतउ सुरणारियणु।। 17 ।। 1/18 Various humble services were served to the mother-queen by the Goddesses. समप्पइ कावि दुरेह-रवाल सुअंध पसूण विणिम्मिय माल ।। विलेवणु लेविणु कावि करेण पुरस्सर थक्कइ भत्ति-भरेण ।। पलोट्टइ कावि विमुक्क-कसाय सरोरुह-सण्णिह णिम्मल-पाय।। कवोलयले कावि चित्तु लिहेइ कहाणउ-सुंदरु कावि कहेइ।। समारइ कावि सिरे अलयालि करेइ वरतिलय कावि भालि।। हैं। जिन्होंने आपके चरण-कमलों की सेवा नहीं की, उन विगत-मतियों ने (केवल) अपने को (ही) ठगा है, केवल आपका ही नारी जन्म श्रेष्ठ एवं सफल है क्योंकि आपने क्रोध-कषाय एवं छल को त्याग दिया है। हे माता, आपके दर्शन से पाप दूर भाग जाते हैं और भावनाएँ सहसा ही विमलतर हो जाती हैं। आप सुखरूपी वृक्षों के उत्पन्न करने की भूमि के समान तथा समस्त कला-विज्ञान की योनि (माता) हो। आप त्रिभुवन की नारियों में श्रेष्ठ नारी-रत्न हैं। आपने अपने उत्तम सुख से लक्ष्मी शयन-विष्णु को भी जीत लिया है। आपके गर्भ में उन तीर्थंकर देव का वास है, जिन्होंने सकल भुवनतल के भेद का विस्तार किया है तथा जो निर्मल हैं, तीन ज्ञानधारी हैं और जिनका उत्कर्ष निर्दोष है, जो मिथ्यात्व रूपी चनों के चूरने (बनाने) के लिए चक्की के समान हैं और जो खचर, अमर, नर एवं धरणेन्द्र के स्वामी हैं, उन्ही मोक्षगामी परमेश्वर तीर्थंकर का (आपकी कोख से) जन्म होगा। घत्ता- इस प्रकार वे (छहों) देवियाँ माता को हर्षित करती हुई, सेवा-वचन बोलती हुईं, अंजलि जोड़ती हुई उसके चरणों में गिरती हुई तथा उसके सम्मुख नाचती हुई उसकी स्तुति करने लगीं। (17) 1/18 देवियों द्वारा माता-वामा की विभिन्न सेवाएँकोई देवी तो वामादेवी के लिये सुगन्धित पुष्पों द्वारा विनिर्मित भ्रमरों से गुंजायमान माला समर्पित करती थी और कोई देवी हाथ से विलेपन (चंदन आदि) का लेप करती थी। कोई देवी भक्तिभाव से सामने बैठती थी, तो कोई देवी कषाय-भाव को छोड़कर उस माता के कमलों के समान निर्मल चरणों को पलोटती (दबाती या पगचंपी) करती थी। कोई देवी कपोल-तल में चित्र लिखती थी, तो कोई देवी सुन्दर कथानक कहती थी। कोई देवी उसके माथे की अलकालि (केशपाश) को सँवारती थी तो कोई देवी भाल में (ललाट में) उत्तम तिलक 20 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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