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________________ अवराउ ण केणवि जाणियउ मुह-इंदु-पहाहय चंदयरा पय-पोम-पसाहिय-वोमयला चलहार-लता-परमट्ठ-थणा सुरसामिय-पत्त-सयंवरया करपल्लव-णिज्जिय पिंडिदला अमयासण-सामिउ-माणियउ।। णयणेहिँ परज्जिय मारसरा।। तणु-तेय-विहूसिय-भूमियला।। णियरूव-विमोहिय-लोयगणा।। विविहंबर कब्बुरियंवरया।। परियाणिय-णिम्मल लोयकला।। घत्ता- आयहिँ सुरणारिहिंजण-मण-मारिहि हयसेणहो पेक्खिणि रमणि। संथुअ सुहकारिणि कलिमल-हारिणि सिहिणंतरि चल-हारमणि।। 16 ।। 1/17 Melodious prayers were presented by the Goddesses before the mother-queen Vāmā devi. जय-जय परमेसरि लोयमाए जहि तह ता किं किज्जइ रमाए।। तुह तिमिर-हणणि दिणमणि-विहेव कुलहर भासणि दीवय-सिहेव।। तुहु पर परहुअ वरमहुरवाणि णिहिलामल-गण-रयणोह-खाणि।। तुहु सयल जीव रक्खण पवीण तुहु विवरम्मुह जायंति दीण।। पहिचानी नहीं जाती थीं, (अर्थात् वे देवियाँ इतनी अदृश्य एवं उनके नूपुरों की ध्वनि इतनी प्रच्छन्न थी कि कोई भी बाहिरी व्यक्ति उन्हें देख-सुन नहीं सकता था)। उन देवियों की मखरूपी चन्द्रप्रभा से चन्द्र-किरणें भी आहत रहती थीं. कामबाण भी उनके नेत्रों से पराजित रहते थे। वे अपने चरण-कमलों से आकाशतल को प्रसाधित कर देने वाली थीं, और अपने तेज (कान्ति) से भूमितल को विभूषित करने वाली थीं। उनके स्तन चंचल हार लता से परिमर्दित रहते थे, अपने सौन्दर्य से वे लोगों को विमोहित करने वाली थीं। वे देवियाँ देवेन्द्र द्वारा स्वयंवर को प्राप्त थीं और विविध-वस्त्रों से आकाश को चित्रित करने में समर्थ थीं। अपने कर रूपी पल्लवों से अशोक वृक्ष के पत्तों को भी निर्जित कर देने वाली वे देवियाँ निर्दोष लोक-कला की ज्ञाता थीं। घत्ता- लोगों के मन का हरण करने वाली वे देवियाँ वहाँ (राजभवन में) आई और हयसेन की रमणी वामादेवी की, जो कि स्तन-युगल पर मणि जटित हार धारण किये हुए थीं, उस (वामादेवी) की कलिकाल के दोष को हरने वाली सुखकारी स्तुति (इसप्रकार) की- (16) 1/17 देवियों द्वारा वामा-माता की स्तुति"हे परमेश्वरी, हे लोकमाता, आपकी जय हो - जय हो। जहाँ आप हैं, वहाँ लक्ष्मी से क्या प्रयोजन? आप तिमिर को नष्ट करने के लिए दिनमणि-सूर्य के समान हो, कुल-गृह को प्रकाशित करने के लिए आप दीप-शिखा के समान हो, कोकिल की मधुर-वाणी बोलने वाली हो। हे माता, आप समस्त निर्मल गुण रूपी रत्नों के समूह की खानि हो। आप सकल जीवों की रक्षा में प्रवीण (कुशल) हो, जो विरोधीजन हैं, वे भी आपके सम्मुख दीन हो जाते पासणाहचरिउ :: 19
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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