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________________ ४५. श्री अनुयोगद्वार सूत्र ४७३) सम्यकज्ञान सर्व ज्ञेय पदार्थो का ज्ञायक, विघ्नो का उपशामक, कर्म निर्जरा का कारक, निजानंद का दायक और आत्मगुण का बोधक होने से मंगलरुप है। ४७४) दत्तचित बनकर, मन को एकाग्र करके, शुभ लेश्या और तन्मय अध्यवसाय युक्त बनकर, तीव्र आत्म परिणाम से, आवश्यक के अर्थ में जागृत बनकर, शरीरादि को उसमें जोडकर, भावना से भाविक होकर अन्य कोई विषय में मन को जाने देने बीना जो साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका उभय काल में प्रतिक्रमणादि आवश्यक क्रिया करते है, उसे “लोकोतर भाव आवश्यक" कहा गया है । ४७५) निर्दोष (हिंसादि दोष रहित), मनकी शांति और समाधिभाव से प्रशांत रस उत्पन्न होता है, अविकारता, मुख पर लावण्यमय, तेज-ओज इसके लक्षण है। ४७६) कोई भी चीज की प्ररुपणा करने के लीए कमसे कम उसे ४ निक्षेपे से वर्णन करना (४ निक्षेपे नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव) ४७७) जो शमन करे, उसे 'श्रमण' कहेते हैं (राग-द्वेष-विषय-कषाय का शमना करना) ४७८) जिस प्रकार अग्नि, लकडे और घी से तृप्त होती नहीं, उसी प्रकार साधु भी ज्ञानाभ्यास से तृप्त होते नही है। ४७९) जिसका ‘सु-मन' है, वह श्रमण है (अर्थात अच्छे पवित्र मनवाला)
SR No.023184
Book TitleAgam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvallabhsagar
PublisherCharitraratna Foundation Charitable Trust
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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