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________________ *भाठवां सर्म मनमें कहने लगा,-"निःसन्देह प्रियदर्शनाने मेरा वियोग होते ही प्राण त्याग दिया होगा। उसके बिना अब मेरा भी जीना पर्थ है। ऐसे जीवनसे तो गलेमें फांसी लगा कर प्राण दे देना अच्छा है। यह सोच कर वह ज्यों ही गलेमें फांसी लगाने. चला, त्यों ही उसकी दृष्टि एक हंस पर जा पड़ो। वह हंस हंसीके वियोगसे ज्याकुल हो रहा था और सरोवरके चारों ओर बड़ो व्यग्रताके साथ उसे खोज रहा था । खोजते-खोजते उसने कमलोंके पीछे छिपी हुई हंसीको देख लिया। इससे उसे असीम आनन्द हमा और वह हंसीके साथ फिर पूर्ववत् क्रीड़ा करने लगा। यह घटना देखकर बन्धुदत्त अपने मनमें फहने लगा, कि सम्भव है कि जीवित रहनेपर लि.सी तरह कभी प्रियदर्शनासे मेरी भी भेंट हो जाय । फलतः उसने आत्महत्या करनेका विचार छोड़ दिया। अब उसने स्थिर किया, कि इस निधनावस्थामें घर जाना ठीक नहीं। यहा उत्तम होगा, कि इस समय मैं विशालानगरीमें अपने मामाके यहां चला जाऊ और वहांसे कुछ धन लाकर फिर प्रियदर्शनाको खोज करू। यदि ईश्वरको कासे प्रियदर्शना मिल जायगो, तो मैं अपने घर जाऊंगा और वहांस मामाका धन उसे वापस भेज दूंगा। ___ मनमें यह बात स्थिर कर बन्धुदत्तने वहांसे विशाला नगरीको राह ली। मार्गमें गिरिपुर नगरके समोप एक यक्षालयमें वह रात्रि हो जानेके कारण टिक रहा । उसी यक्षालयमें एक और भी मुसाफिर ठहरा हुआ था। उससे बातचीत करनेपर बन्धुक्तको
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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