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________________ * सप्तम संगं * कि दुर्भाव पूर्वक दान देनेसे राजपत्नी होना पड़ता है । अस्तु ! अब तू यह औषधि ले। और इसे किसी तरह राजाको खिला देना । ऐसा करनेसे वह तेरे वशीभूत हो जायगा ।" रानीने कहा, "माता ! आपका कहना सत्य है, किन्तु राजा तो मेरे यहां पैर भी नहीं रखते। ऐसी अवस्थामें मुझे उनके दर्शन भी कैसे हो सकते हैं और मैं उन्हें औषधि भी किस प्रकार खिला सकती हूँ ?” जोगिनने कहा, – “यदि ऐसी अवस्था है, तो मैं तुझे एक मंत्र सिखाती हूँ । उसकी एकाग्रचित्तसे साधना करना, ऐसा करनेपर तेरा दुर्भाग्य दूर होगा और पति भी वशीभूत होगा ।" रानोने यह करना स्वीकार किया अतएव परिव्राजिकाने शुभ मुहूर्तमें उसे एक मन्त्र दिया। इसके बाद वह प्रति दिन प्रेमपूर्वक उस मन्त्रका जप करने लगी। जप करते हुए अभी तीन दिन भी न हुए थे कि राजाने एक सेवकको भेज कर रानीको अपने महलमें बुला भेजा । उस समय रानो स्नान, विलेपन और श्रृंगारादि कर वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित हो दासियोंके साथ हस्तिनीपर बैठ कर राज-महलमें गयी । उसे आते देख राजाने सम्मानपूर्वक बुलाकर 1 उसे अपने पास बैठाया और उसके साथ प्रेमालाप कर उसे अपनी पटरानी बनाया। अब रानी इच्छित सुख भोग करने लगी । किसीपर संतुष्ट होती, तो उसे मनचाहा फल देती और किसीपर रुष्ट होती तो उसका सर्वनाश कर डालती । एक दिन वह जोगिन फिर रानीके पास आयी। उसने रानीसे पूछा, -- “हे वत्से ! तेरे मनोरथ सिद्ध हुए ? रानीने कहा, -
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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