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________________ ४५८ * पार्श्वनाथ-चरित्र किसी तरह आम्रफलको वह गुठली वयरसेनके पेटसे बाहर निकालनी चाहिये। यह सोचकर उसने एक दिन वयरसेनको भोजनमें मदन फल खिला दिया। इससे उसको उसी समय के हो गई और उसके साथ वह गुठली भी बाहर निकल आयी। इसी समय गुठलोको धोधाकर बुढ़िया तुरत खा गयी, किन्तु उसके पेटमें पड़ते ही वह गुठली नष्ट हो गयी, फलतः उसे कोई लाभ न हुआ। इधर अब वयरसेनको भी स्वर्ण मुद्रायें मिलनी बन्द हो गयी, इससे उसका हाथ तंग हो गया और उसके दान धर्म प्रभृति कार्यों में भी बाधा पड़ गयी। वह अपने मनमें कहने लगा,-"इस बुढ़ियाने मेरे साथ बड़ो चालबाजो की है, अतएव इसे कुछ सजा अवश्य देनी चाहिये।" ___ वयरसेन इस तरह सोच ही रहा था, कि बुढ़ियाने आकर उससे कहा,-"आज हमारे यहां देवोकी पूजा होनेवालो है, अतएव आप घरसे बाहर चले जाइये।” इस तरह बहाना कर उसने वयरसेनको घरसे भी निकाल दिया। अब वयरसेन अपमानित हो इधर उधर भटकने लगा। वह अपने मनमें सोचने लगा,"संसारमें धन ही सार वस्तु है। धनसे सभी काम सिद्ध होते है। जिसके पास धन होता है, वही पुरुष कुलोन, वही पण्डित, वहो विद्वान्, वही वक्ता और वही दर्शनीय माना जाता है, क्योंकि सभी गुण उसीमें निवास करते है। निर्धन अवस्थामें मनुष्यको अपना जीवन भी भाररूप हो पड़ता है ; अतएव मैं अब कहां जाऊं और क्या करू?" इसी तरह सोचते हुए अन्तमें उसने
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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