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________________ * सप्तम सर्ग बहुत कुछ खोज करायी, किन्तु जब कहीं उसका पता न चला तब वह भी राज्य चिन्तामें पड़कर उसे भूल गया। मगधाके यहां उसकी बुढ़िया माता रहती थी। वह कुटनीका काम करती थी और बहुत ही घुटी हुई तथा लोभी प्रकृतिकी थी। एक दिन उसने मगधासे कहा,—“बेटी! तेरा यह प्रियतम तो बड़ा ही दानो और महाभोगी है। संसारमें इस समय ऐसा कोई पुरुष ही नहीं दिखाया देता, जो इसकी समता कर सके। किन्तु यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि न तो यह कोई रोजगार करता है न कहीं नौकरी ही करता है, फिर भी न जाने इतना धन कहांसे लाता है ! तू उससे पूछना कि इतना धन वह कहांसे लता है ?" यह सुन मगधाने कहा-“मैया! हमें उससे ऐसा प्रश्न क्यों पूछना चाहिये ? हमें तो केवल धनसे काम है और वह हमें मुंहमांगा मिल ही रहा है।” बुढ़ियाने कहा,- “तेरा कहना ठीक है। तथापि अवसर मिलनेपर यह प्रश्न पूछना जरूरी है। तदनुसार एक दिन रात्रिके समय मगधाने क्यरसेनसे पूछा, हे स्वामिन् ! नौकरी या व्यापार किये बिना ही आप यह धन कहांसे लाते हैं ?" वयरसेन तो तनमनसे उसपर आशिक हो रहा था, इसलिये उसने उस आघ्र फलकी गुटलीका सारा हाल उसको कह सुनाया। विचारे उसे क्या मालूम था, कि अपना यह रहस्य बतलाकर वह अपना हो सर्वनाश करने जा रहा है ? वयरसेनसे आम्रफलका भेद मिलते ही मगधाने वह अपनी माताको कह सुनाया। अब उस बुढ़ियाने विचार किया कि
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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