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________________ आदिनाथ-चरित्र ५३० प्रथम पवे की तरह मूर्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। भगवान्के विरहका महान् दुःख सिरपर आ पड़ा था, तो भी दुःखका भार कम करने में सहायक होनेवाले रोदनको मानों लोग भूल ही गये थे। इसी लिये चक्रवर्तीको यह बतलाने और इस तरह हृदयका भार हलका करनेकी सलाह देनेके लिये ही मानों इन्द्रने चक्रवर्तीके पास बैठेबैठे ज़ोर-ज़ोरसे रोना शुरू किया। इन्द्रके बाद और सब देवता भी रोने लगे। क्योंकि एकसाँ दुःख अनुभव करनेवालोंकी चेष्टा भी एकसो होती है। उन लोगोंका रोना सुन, होशमें आकर चक्र. वत्तीं भी ऐसे ऊँचे स्वरसे रोने लगे,कि ब्रह्माण्ड फट पड़ने लगा। मोटी धारकी तेजीसे जैसे नदीका बांध टूट जाता है, वैसेही दिल खोलकर रो पड़नेसे महाराजको शोक-ग्रन्थि भी टूट गयी। उस समय देवों, असुरों और मनुष्योंके रोदन---काण्डसे तीनों लोकमें करुण-रसका एकच्छत्र राज्यसा हो गया। उस दिनसे ही जगत् में प्राणियोंके शोकसे उत्पन्न कठिन शल्यको निकाल बाहर करने वाले रोदनका प्रचार हुआ। महाराज भरत, स्वाभाविक धैर्यको छोड़, दुःखसे पीड़ित होकर, इस प्रकार पशु-पक्षियोंको भी रुला देनेवाला विलाप करने लगे,- . . “हे पिता !हे जगद्वन्धु ! हे कृपारसके समुद्र! मुझ अक्षानीको इस संसार-रूपी अरण्यमें अकेले क्यों छोड़े जा रहे हो ? जैसे बिना दीपकके अन्धकारमें नहीं रहा जाता, वैसेही बिना आपके मैं इस संसारमें कैसे रह सकूँगा ? हे परमेश्वर ! छद्मवेशी प्राणीकी तरह तुमने आज मौन क्यों स्वीकार कर लिया है ?' मौन त्यागकर
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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