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________________ आदिनाथ-चरित्र ४४८ प्रथम पव वह नहीं आया। मैंने सोचा, यह उसके मंत्रियोंके विचारका रोष होगा। मैंने उसे किसी लोभसे या उसपर क्रोध करके नहीं बुलवाया था; पर चूँकि जबतक एक भी राजा सिर ऊंचा किये रहेगा, तषतक चक्र नगरमें प्रवेश नहीं करेगा। ऐसी हालतमें मैं क्या करूँ ? इधर चक्र नगर में नहीं प्रवेश करता, उघर बाहुबली मेरे आगे सिर नहीं झुकाता, इससे मुझे तो ऐसा मालूम होता है, कि इन दोनोंमें होड़सी लगी हुई है। मैं इसी संकटमें पड़ा हूँ। यदि मेरा भनस्वी भाई एक वार मेरे पास आये और अति. थिकासा सत्कार ग्रहण करे, तो मैं उसको मनमानी पृथ्वो दे हूँ। इसलिये इस चक्रके नहीं प्रवेश करने के सिवा मेरे युद्ध करनेका कोई दूसरा कारण नहीं है। मैं अपने उस छोटे भाइसे मान पानेकी इच्छा भी नहीं करता । देवताओं ने कहा,-"राजन ? संग्रामका कारण बहुत बड़ा होना चाहिये, क्योंकि आपकेसे पुरुषों को छोटे-मोटे कारणोंसे ऐसी प्रकृत्ति नहीं होनी चाहिये। अब हमलोग बाहुबलीके पास जाकर उन्हें भी समझायेंगे और इस युगान्तके समय होनेवाले जनक्षयके समान लोक संहारको रोकने की चेष्टा करेंगे । कदा. चित् वे भी आपकी ही तरह इस युद्धका कोई दूसरा कारण बतलाये, तो भी आपको यह अधम युद्ध नहीं करना चाहिये । महान पुरुष तो दृष्टि, बाहु और दण्ड आदि उत्तम आयुधोंसे ही युद्ध करते हैं, जिससे निरपराध हाथियों आदिका बध न हो।" भरत चक्रवर्तीने देवताओंकी यह बात स्वीकार करली और
SR No.023180
Book TitleAdinath Charitra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1924
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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