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________________ त्रैवर्णिकाचार। २२१ लञ्च खुर्च न गृहीयात् कूटलेखं च वर्जयेत् । ... मायाशल्यं निदानं च क्रौर्यरागातिलोभताम् ॥१०७ ॥ - वैश्य लाँच न ले, और कोई खुशीसे कुछ दे उसे भी न ले । क्योंकि लांचके लेनेसे अपने परिणाम लांच देनेवालेकी ओर झुक जाते हैं, जिससे कार्योंके ठीक ठीक होनेकी संभावना नहीं रहती । वैश्य खोटे लेख, तमस्सुक आदि न लिखे, छल कपट न करे, अप्राप्त वस्तुके ग्रहण करनेकी लालसा न रक्खे, परिणामोंमें क्रूरता न रक्खे और अत्यन्त राग और लोभ न करे ॥ १०७ ॥ किंकरं तु समाहूय दत्वा च वृषभान् परान् । बीजधान्यं धनं वित्तं संस्कुर्यात् कृषिकर्म च ॥ १०८ ॥ . अच्छे अच्छे बैल और बोने योग्य अच्छा बीज तथा अन्य उपयोगी सामग्री देकर नौकेरोसे खेती करावे ॥ १०८॥ व्रतधारी क्रियाकारी सामायिकी तपोरतः। न कुर्यात् कर्षणं धर्मी भूरिजीवप्रघातकम् ॥ १०९ ॥ जो व्रतधारी है, नित्य नैमित्तिक क्रियाओंको करता है, निरन्तर सुबह शामको सामायिक करता है और उपवास आदि तपश्चरण करता है, ऐसा धर्मात्मा वैश्य स्वयं खेती न करे । क्योंकि खेती करनेसे बहुतसे जीवोंका घात होता है ॥ १०९ ॥ गोमहिषीतुरंगादीन् संगृह्य च व्ययेत्पुनः। दधि दुग्धं घृतं तक्रं भव्यपात्राय दीयते ॥ ११० ॥ घृतस्य विक्रये दोषो नास्ति व्यापारवर्तिनः। शेष गव्यं न विक्रीत तृणायैस्तर्पयेद्धनम् ॥ १११ ॥ वैश्य, गाएँ, भैसें, घोड़े आदिकी खरीदी कर बेंचे और दूध, दही, घी और मठा योग्य पुरुषोंको देवे । व्यापारी गृहस्थको घीके बेंचनेमें कोई दोष नही है । घीके अलावा शेष दूध दही आदि न बेंचना चाहिये । तथा अपने पासके पशुओंको घास आदिसे खूब तृप्त रक्खेउन्हें भूखे रहने दे || ११०-१११ ॥ वाणिज्यं त्रिविधं प्रोक्तं पण्यं वृषभवाहनम् । अब्धिनावादिकं चेति कुटुम्बपोषणाय वै ॥ ११२.॥ __ वैश्योंको अपने कुटुम्बका भरण-पोषण करनेके लिए व्यापार करना चाहिए। वह व्यापार तीन प्रकारका है । प्रथम-दुकान करना, दूसरे बैलगाड़ी आदिमें माल रखकर दूसरी जगह ले जाकर बेंचना तथा दूसरी जगहसे माल लाकर अपने यहां बेंचना और तीसरे जहाज आदि द्वारा द्वीपान्तरोंको माल ले जाना और वहांसे लाना ॥ ११२ ॥ गजयन्त्रे समानत्वं न्यूनाधिक्यविवर्जितम् । अल्पलाभेन कर्तव्यं वस्त्रस्य विक्रय मुदा ॥ ११३ ॥ कपड़ा नापनेका गज बराबर रक्खे, कमती ज्यादा न रक्खे । तथा थोड़ा नफा लेकर कपड़ा बेचे ।। ११३ ।।
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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