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________________ अनुकम्पालिंग : ग्रंथ की ५३वीं से ७७वीं गाथाओं में चतुर्थ सम्यक्त्वलिंग अनुकम्पा का विवेचन किया गया है। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति अनुकम्पावान होता है । वह सदैव दूसरों के दुःख दूर करने के बारे में विचार करता रहता है तथा सोचता है कि उसे भव्य जीवों का संसार - दुःख दूर करके उन्हें मुक्ति दिलाने का उपाय करना ही चाहिये ।' वह सोचता है कि जिनधर्म संसारमुक्ति का एकमात्र उपाय है, अतः मैं अपने न्यायोपार्जित धन से एक भव्य जिनमंदिर का निर्माण कराकर उसमें सुंदर व मनमोहक जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाऊंगा जिसके दर्शन मात्र से ही भव्यजीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करेंगे। अनेक युक्तियों से जिनालयनिर्माण में होने वाली त्रस - स्थावर जीवों की हिंसा को अनुकम्पा सिद्ध करते हुए शास्त्रकार परमतनिरसन व स्वमतस्थापना द्वारा सम्यग्दर्शन की प्रतिष्ठा के लिये जैन मुनियों के लिये भी परसमयज्ञता की आवश्यकता को प्रतिपादित करते हैं। इसी क्रम में दान देने में पात्रापात्र विवेक व लोकाचार के निर्वहनार्थ भी घर आए अपात्र याचक को दान देने में सावद्यकर्म न हो ऐसा ध्यान रखने की 9 वही, ४३-४५. २ वही, ४७-४६. ३ वही, ५० -५१. वही, ५२. वही, ५३-५४. ६ वही, ५५-५७. वही, ६१-६४. ४ आमुख : XLI हुआ संसार से विरक्ति का अनुभव करता है। वह संसार की अनित्यता, अशरणता आदि का चिंतन करता हुआ महान दुःख का अनुभव करता है, व विरक्ति को प्राप्त होता है । वह सांसारिक बंधनों के त्यागी साधुओं को धन्य मानता है, तथा सांसारिक सुखों का भोगोपभोग करता हुआ भी उनमें आसक्ति नहीं रखता है । वह सम्यग्दृष्टि साधक इस प्रकार की निर्वेद भावना वाला होता है । ५ ७
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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