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________________ XL : पंचलिंगीप्रकरणम् तपपूर्वक निर्जरा करने वाले होते हैं।' गुणियों का बहुमान करने वाला व स्त्री-पुत्रादि में मंदस्नेहवाला साधक जिनशासन की प्रभावना करने वाला होता है; वह सांसारिक अभ्युदय से हर्षित नहीं होकर आरंभ-समारंभ में होने वाले सावद्यकर्म के लिये पश्चाताप करता है। अपनी धन-संपदा के प्रति भी उसकी अनासक्ति के कारण वह उतने मात्र को ही सार्थक मानता है जितनी कि वह देव-गुरु के प्रति अर्पण करता है, शेष को वह अनर्थकारी व भववर्द्धक मानता है। निर्वेदलिंग : ग्रंथ की तेतीसवीं से बावनवीं गाथाओं में तृतीय सम्यक्त्वलिंग - निर्वेद का विवेचन है। इसके प्रारंभ में ही सम्यग्दृष्टि जीव के संसार के गहन दुःखों से उद्विग्न होकर विरक्ति के बारे में विचार करने का उल्लेख करते हुए उसके द्वारा अनेक बार चतुर्गति में भ्रमण करते हुए नरक-तिर्यंचादि गतियों में दुःसह दुःख भोगने का वर्णन है। आत्मा मिथ्यावादि कारणों से अनन्त कर्मों का बंध करता है जिससे वह असंख्यात काल तक नरकों में कुंभीपाकादि अग्नियों में पकाया जाता है; नरक से निकलकर वह तिर्यंचगति व वहाँ से फिर नरकगति में उत्पन्न होता है। अशुभ कर्मोदय से मनुष्य जन्म में भी वह हीन कुल-जाति में पैदा होकर दुष्प्रयुक्त होने का दुःख भोगता है, अनेक व्याध्यिों से ग्रस्त होता है, गरीबी की मार झेलता है, इष्टवियोग व अनिष्टयोग की पीड़ा भोगता है, तथा चिंता-संतापादि से अत्यंत दुःखी होकर मरता है। देवगति में भी उसे च्यवनोपरांत तिर्यंचगति में उत्पन्न होने का भय सताता है, अतः सम्यग्दृष्टि आत्मा भूत, वर्तमान व भविष्य काल में भी भवभ्रमण में होने वाले कष्टों का चिंतन करता वही, २४. वही, २६-३०. वही, ३१.. वही, ३३-३४. वही, ३५-३८. वही, ३६-४२.
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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