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________________ आमुख : XXIX शमन तथा यह प्रशम का ही भाग है। जब तक दीर्घ-काल तक बने रहने वाले अनंतानुबंधी कषायों का शमन नहीं हो जाता है तब तक जीव वस्तुओं को उनके सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देख पाता है क्योंकि ऐसे दुराग्रही कषाय सम्यग्दृष्टि को आच्छादित करते हैं। इन अनंतानुबंधी कषायों का शमन होने पर ही जीव वस्तुओं को उनके सही परिप्रेक्ष्य में देख पाने की योग्यता प्राप्त करता है। यही मिथ्यात्व का अंत व सम्यक्त्व का उदय है। जब प्रशम की स्थिति बन जाती है तो साधक अनंत-ज्ञानोदय या आत्म-साक्षात्कार के समीप होता है। पंचलिंगीप्रकरण में शास्त्रकार ने अनेक युक्तियों से यह सिद्ध किया है कि उपशम का अर्थ है मिथ्यात्त्व का शमन नकि कषाय का उपशमन। क्योकि व्यक्ति के बाह्य लक्षण उसकी आंतरिक दशा के सूचक होते हैं, शम या उपशम उसके सम्यक्त्व से सुशोभित होने या मिथ्यात्व से ग्रस्त होने का महत्वपूर्ण संकेतक है। संवेग - सम्यक्त्व का दूसरा सूचक है संवेग या इस दुःखमय व आध्यात्म-बाधक संसारी जीवन से मुक्त होने की उत्कट अभिलाषा। आत्म-शुद्धता प्रत्येक जीव की स्वाभाविक दशा है तथा इस बात में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि हरएक प्राणी अपनी उस स्वाभाविक दशा को उसी प्रकार प्राप्त करना चाहता है जैसे कि कोई यात्री लंबी व थका देने वाली यात्रा के पश्चात् घर पहुंचना चाहता है। जैसे कि प्रत्येक ऐसे यात्री के लिये, जो कि खानाबदोश नहीं है, अपने घर पहुंचने की इच्छा करना स्वाभाविक है उसी प्रकार सभी आत्माओं के लिये, जो कि स्थाई रूप से मिथ्यात्वी (अभव्य) नहीं हैं, संसारीपन से मुक्त होकर निर्वाण रूपी स्वगृह जाने की इच्छा करना स्वाभाविक ही है। निर्वेद - निर्वेद वह मानसिक स्थिति है जिसमें साधक निरंतर यह अनुभव करता है कि उसका संसारी अस्तित्व एक ऐसा कारागृह है जिसमें उसे कैद कर लिया गया है। वह संसार परिभ्रमण में हुए नरक-तिर्यंच गतियों में
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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