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________________ पञ्चलिङ्गीप्रकरणम् आमुख जैन परम्परा में मोक्षमार्ग के रूप में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, व सम्यक्चारित्र रूपी त्रिवेणी का उल्लेख है। इन तीनों में से भी सम्यग्दर्शन का अतिविशेष महत्व है क्योंकि इसके अभाव में न ज्ञान सम्यक् होता है न चारित्र ही सम्यक् रह पाता है। इसीलिये अति प्राचीन काल से ही शास्त्रकारों ने इसे मोक्ष का प्रथम सोपान', मोक्षमार्गप्रदर्शक तथा धर्म का आधार माना है। इसके महत्त्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आचारांगसूत्र में जिनेश्वरदेव ने स्वयं इससे भी एक कदम आगे जाकर कहा कि 'सम्यग्दृष्टि पाप नहीं करता है। वहीं कुंदकुंदाचार्य ने भावपाहुड़ में यहाँ तक कहा है कि सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति तो चलता-फिरता शव है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसके महत्त्व को एक नया आयाम देते हुवे भगवान महावीर ने कहा कि असम्यग्दृष्टि को सम्यग्ज्ञान नहीं होता है, सम्यग्ज्ञान के बिना चारित्र के गुण प्राप्त नहीं होते, चारित्रगुण के अभाव में मोक्ष (कर्ममुक्ति) नहीं हो सकता है तथा अमुक्त का निर्वाण (अखण्डानन्द या अनन्त सुख की प्राप्ति) नहीं होता है। अनेक अन्य ग्रंथों में भी सम्यग्दर्शन के बारे में कहा गया है कि जो दर्शन से भ्रष्ट है वही वास्तव में भ्रष्ट है तथा चारित्रभ्रष्ट का निर्वाण तो संभव है किंतु दर्शन "दंसणसोवाणं पढमं मोक्खस्स।" - कुंदकुंदाचार्य, दर्शनपाहुड़, २१. "दंसइ मोक्खमग्गं ।' - कुंदकुंदाचार्य, बोधपाहुड, १४. "दंसणमूलओ धम्मो।" - वही, २. “समत्तदंसी न करेइ पावं।” - आचारांग, १/३/२. “दसणमुक्को य होइ चलसवओ।" - भावपाहुड़, १४३. उत्तराध्ययनसूत्र, २८.३०.
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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