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________________ जैन संघ का स्वरूप • 145 प्रायश्चित। (3) आरोवणा प्रायश्चित - एक दोष का प्रायश्चित चल रहा हो, उस बीच में ही उस दोष का पुन: सेवन करने पर जो प्रायश्चित की अवधि बढ़ती है। (4) परिकुंचना प्रायश्चित -आपराध को छिपाने का प्रायश्चित। दोषी के शुद्धिकरण की प्रक्रिया को परिहार विशुद्धि' कहा जाता था। आचार्य अकलंक ने बताया है कि जीव को परिणाम असंख्येय लोक जितने होते हैं तथा जितने परिणाम होते हैं उतने ही उनके प्रायश्चित होने चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं है। परिहार की विधि नौ श्रमणों के समूह में चार का परिहार किया जाता था, चार प्रतीक्षारत रहते हुए पहले चार का निरीक्षण करते थे अणुपारिहारिक तथा नवां गुरु के समान व्यवहार करता था।320 परिहारकम्म के अन्तर्गत छ: माह की अवधि में भिन्न-भिन्न ऋतुओं में विविध व्रत, उपवास एवं अनशन किये जाते थे। उदाहरण के लिए उपवास ऋतु न्यूनतम अनुपात अधिकतम शीत ग्रीष्म वर्षा सिर्फ छ: बार भोजन सिर्फ चार बार भोजन सिर्फ आठ बार भोजन छः दस बार भोजन आठ बार भोजन बारह बार भोजन पारिहारिक अनशन के उपरान्त आचाम्ल किया जाता था। जबकि गुरु बना नवां श्रमण प्रतिदित आचाम्ल करता था। इस प्रकार जब पहले चार भिक्षु आचाम्ल कर लेते तब शेष चार छ: माह के परिहार कम्म का आरम्भ कर देते थे। तत्पश्चात् नवां श्रमण गुरु छः माह तक परिहार कम्म करता था। इस प्रकार पूरा समूह अठारह माह में शुद्ध हो जाता था।
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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