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________________ जैन संघ का स्वरूप • 101 उनका अवतार रज से उपप्लुत अर्थात् रजोधारण ( मलधारण) वृत्ति द्वारा कैवल्य प्राप्ति की शिक्षा के लिए हुआ था। जैन मुनियों के आचार में अस्नान, अदन्तधावन, मल परीषह आदि द्वारा रजोधारण संयम का आवश्यक अंग माना गया है। जैनों के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने अपने धर्म के प्रचार के लिए संघ बनाया था। चौबीसवें तीर्थंकर महावीर ने पार्श्व के धर्म को विशेष प्रतिष्ठा प्रदान की 110 'बुद्ध भगवान के समय में जैन साधु साध्वियों का संघ सबसे विशाल संघ था।" महावीर स्वामी किशोरावस्था से ही श्रमण सिद्धान्तों द्वारा प्रभावित हो गये थे । वर्धमान महावीर के माता-पिता और उनके परिजन पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। 12 महावीर से जैन धर्म और संघ का क्रमबद्ध इतिहास मिलता है। महावीर का जीवन काल 599 ई०पू० से 627 ई०पू० " तक माना जाता है। इन्हीं के समय में प्राचीन निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का नाम जैनमत पड़ा। इन्होंने जैन धर्म का विधिवत प्रचार और प्रसार किया। 13 पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म तथा महावीर के पांच महाव्रत भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा से चला आने वाला धर्म चातुर्याम धर्म कहलाता था। जिसका वर्णन स्थानांगसूत्र में 14 मिलता है। यह चारों याम थे— (1) सर्वप्राणतिपात विरमण । (2) सर्वमृषावाद विरमण । (3) सर्व अदत्तादान विरमण | (4) सर्ववहिद्धादाण विरमण | पार्श्वपत्यिक चातुर्याम परम्परा भगवान बुद्ध के समय विद्यमान थी । बौद्ध पिटकों में निर्ग्रन्थ साधु के लिए 'चातुर्याम संवर संवत्तो' विशेषण का प्रयोग मिलता है।'' इससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं - (1) महात्मा बुद्ध तथा उनके अनुयायी इस परम्परा से पूर्णतया परिचित थे । तथा (2) पार्श्वनाथ की यह परम्परा उन दिनों जीवित एवं प्रचलित थी । अनेक बौद्ध विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि बुद्ध भगवान ने भी पार्श्वनाथ की परम्परा को स्वीकार किया था। इन विद्वानों का कथन है कि गृहत्याग के बाद महात्मा बुद्ध ने कुछ दिनों तक निर्ग्रन्थ आचार का पालन किया था। निर्ग्रन्थ आचार पार्श्वनाथ की परम्परा के एकदम निकट दिखाई पड़ता है। महावीर ने ब्रह्मचर्य को
SR No.023137
Book TitleJain Agam Itihas Evam Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRekha Chaturvedi
PublisherAnamika Publishers and Distributors P L
Publication Year2000
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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